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मानसरोवर
विमल-यह देखता क्या कहूँ ?
माँ-स्वभाव ही ऐसा है, तो कोई क्या करे ?
विमल-सुरेश ने मेरा हुलिया क्यों लिखाया था ?
माँ- तुम्हारी खोज लेने के लिए। उन्होंने दया न की होती, तो आज
घर में किसी को जीता न पाते ।
विमल-बहुत अच्छा होता ।
शीतला ने ताने से कहा-अपनी ओर से तो तुमने सबको मार ही डाला
या । फूलों की सेज नहीं बिछा गये थे ।
विमल-अब तो फूलों की सेज ही बिछी हुई देखता हूँ।
शीतला-तुम किसी के भाग्य के विधाता हो ?
विमलसिंह उठकर क्रोध से कॉपता हुश्रा बोला-अम्माँ, मुझे यहाँ से
ले चलो। मैं इस पिशाचिनी का मुँह नहीं देखना चाहता। मेरी आँखों में
खून उतरता चला आता है । मैंने इस कुल कलकिनी के लिए तीन साल तक
जो कठिन तपस्या की है, उससे ईश्वर मिल जाता ; पर इसे न पा सका!
यह कहकर वह कमरे से निकल आया और माँ के कमरे में लेट रहा।
मों ने तुरन्त उसका मुंह और हाथ पैर धुलाये। वह चूल्हा जलाकर पूरियाँ
पकाने लगी। साथ-साथ घर की विपत्ति-कथा भी कहती जाती थी। विमल के
हृदय में सुरेश के प्रति जो विरोधामि प्रज्वलित हो रही थी, वह शात हो गयी,
लेकिन हृदय-दाह ने रक्त-दाह का रूप धारण किया। जोर का बुखार चढ़
पाया । लबी यात्रा की थकान और कष्ट तो था बरसों के कठिन श्रम और
तप के बाद वह मानसिक सताप और भी दुस्सह हो गया ।
सारी रात वह अचेत पड़ा रहा। माँ बैठी पखा झलती और रोती थी।
दूसरे दिन भी वह वेहोश पड़ा रहा । शीतला उसके पास एक क्षण के लिए भी
न श्राई । इन्होंने मुझे कौन सोने के कौर खिला दिये हैं, जो इनकी धौंस सहूँ !
यहाँ तो 'जैसे कता घर रहे, वैसे रहे बिदेस ।' किसी की फूटी कौड़ी नहीं
जानती । बहुत ताव दिखाकर तो गये थे ? क्या लाद लाये ?
सध्या के समय सुरेश को खबर मिली । तुरन्त दोंड़े हुए श्राये । आज दो
महीने के बाद उन्होंने इस घर में कदम रखा। विमल ने पाखें खोली, पहचान
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१४३
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