राजा हरदौल १६
तेरे दर्शन होंगे। राजा मंजिलें मारते चले आते थे, न भूख थी, न प्यास, ओरछेवालों की मुहब्बत खींचे लिये आती थी। यहाँ तक कि ओरछे के जगलों में आ पहुँचे । साथ के आदमी पीछे छूट गये । दोपहर का समय था । धूप तेज़ थी। वे घोड़े से उतरे और एक पेड़ की छाँह में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे । सैकड़ों बुन्देला सरदार उनके साथ थे। सब अभिमान के नशे में चूर थे। उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले बैठे देखा , पर वे अपने घमड में इतने डूबे हुए थे कि इनके पास तक न आये । समझा कोई यात्री होगा। हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया । वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंह के सामने आये और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आँख मिल गयी । पहचानते ही घोडे से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। राजा ने भी उठकर हरदौल को छाती से लगा लिया; पर उस छाती में अब भाई की मुहब्बत न थी। मुहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी, और वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नगे पैर उनकी तरफ़ न दौड़ा, उसके सवारों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की। संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुँचे। राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बजने लगी। हर जगह आनन्दोत्सव होने लगा और तुरता-फुरती सारा शहर जगमगा उठा।
आज रानी-कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया । नौ बजे होंगे। लौंडी ने आकर कहा-महाराज, भोजन तैयार है। दोनो भाई भोजन करने गये। सोने के थाल में राजा के लिए भोजन परोसा गया और चाँदी के थाल में हरदौल के लिए। कुलीना ने स्वय भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वय ही सामने लायी थी; पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन, उसने "भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चाँदी का राजा के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह वर्ष भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था; पर जुझारसिंह तिलमिला गये। जबान से कुछ न बोले; पर तोवर बदल गये और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ़ घूमकर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष मालूम होता था। दो-चार ग्रास खाकर उठ आये । रानी उनके तेवर देखकर डर गयी । आज कैसे प्रेम से उसने