पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१६२

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गृह-दाह सत्यप्रकाश के जन्मोत्सव में लाला देवप्रकाश ने बहुत रुपये खर्च किये थे। उसका विद्यारम्भ-सस्कार भी खूब धूम-धाम से किया गया। उसके हवा खाने को एक छोटी सी गाड़ी थी। शाम को नौकर उसे टहलाने ले जाता था। एक नौकर उसे पाठशाला पहुंचाने जाता । दिन-भर वहीं बैठा रहता और उसे साथ लेकर घर आता । कितना सुशील, होनहार वालक था ! गोरा मुखड़ा, बड़ी-बड़ी ओखें, ऊँचा मस्तक, पतले पतले लाल अधर, भरे हुए पाव । उसे देखकर सहसा मुंह से निकल पड़ता था-भगवान् इते जिला दें, प्रतापी मनुष्य होगा। उसकी बल-बुद्धि की प्रखरता पर लोगों को आश्चर्य होता था। नित्य उसके मुखचन्द्र पर हँसी खेलती रहती थी। किसी ने उसे हट करते या रोते नहीं देखा। वर्या के दिन थे । देवप्रकाश पत्नी को लेकर गगालान करने गये । नदी खूब चढ़ी हुई थी ; मानो अनाथ की अावे हो । उनकी पनी निर्मला जल में बैठकर जलक्रीड़ा करने लगी। कभी आगे जाती, कभी पीछे जाती, कभी डुबकी मारती, कभी अञ्जुलियों से छोटे उदाती। देवप्रकाश ने कहा- अच्छा, अब निक्लो, सरदी हो जायगी। निर्मला ने कहा-कहो तो मैं छाती तक पानी में चली जाऊँ? देवप्रकाश-और जो कहीं पैर फिसल जायें ? निर्मला-पैर क्या फिसलेगा! यह कहकर वह ती तक पानी में चली गयी। पति ने कहा- अच्या, अब भागे पैर न रसना ; किन्तु निर्मला के सिर पर मीत खेल रही थी। यह जल्टीमा नदी, मृत्युझीदा थी। उसने एक पग ग्रौर आगे बढ़ाया और फिसल गयी। मुंह से एक चीज निकली; दोनों हाथ सहारे के लिए ऊपर उठे और फिर उलमम हो गये। एक पल में प्यासी नदी उसे पी गयी। देवप्रकाश खड़े तौलिया से देश पोछ रहे थे। तुरंत पानी में कूदे, साथ का कहार भी कूदा।