गृहदाह १७५ विवाह के दिन आये । घर में तैयारियाँ होने लगी। सत्यप्रकाश खुशी से फला न समाता ! मेरी नयो अम्मों आयेंगी। बारात में वह भी गया। नये-नये कपड़े मिले। पालकी पर बैठा । नानी ने अन्दर बुलाया और उसे गोद में लेकर एक अशरफी दी। वहीं उसे नयी गाता के दर्शन हुए। नानी ने नई माता से कहा-बेटी, कैसा सुन्दर बालक है ! इसे प्यार करना । सत्यप्रकाश ने नयी माता को देखा और मुग्ध हो गया। बच्चे भी रूप के उपासक होते हैं । एक लावण्यमयी मूर्ति आभूपण से लदी सामने खड़ी थी। उसने दोनों हाथों से उसका अचल पकड़कर कहा-अम्माँ ! कितना अरुचिकर शब्द था, कितना लज्जायुक्त, कितना अप्रिय ! वह ललना जो 'देवप्रिया' नाम से सम्बोधित होती थी, यह उत्तर दायित्व, त्याग और क्षमा का सम्बोधन न सह सकी । अभी वह प्रेम और विलास का सुखस्वप्न देख रही थी-यौवनकाल की मदमय वायुतरंगों में आन्दोलित हो रही थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भग कर दिया। कुछ रुष्ट होकर बोली--मुझे अम्मा मत कहो। सत्यप्रकाश ने विस्मित नेत्रों से देखा । उसका बालस्वप्न भी भग हो गया । पाखें डबडया गयौं। नानी ने कहा-बेटी, देखो, लड़के का दिल छोटा हो गया । वह क्या जाने, क्या कहना चाहिए। अम्मा कह दिया तो तुम्हें कौन- सी चोट लग गयी? देवप्रिया ने कहा-मुझे अम्मों न कहे। + -*) सौत का पुत्र विमाता को आँवों में क्यों इतना खटकता है ? इसका निर्णय आज तक किसी मनोभाव के पण्डित ने नहीं किया। इम किस गिनती में है। देवप्रिया जय तक गर्भिणी न हुई. यह सत्यप्रकारा से कभी-कभी बातें करती, कहानियाँ सुनाती; चिन्तु गर्भिणी होते ही उसका व्यवदार कठोर हो गया, और प्रसवकाल ज्या ज्या निकर आता था, उसकी फठोरता बदनी ही जाती यो । जिस दिन उसकी गोद में एक नोंद-मे बच्चे का श्रागमन हुआ, सत्यप्रकाश सब ठाकदा और मौरराह में दौड़ा दुश्रा बच्चे को देखने गया। बचा देवप्रिया की गोद में सो रहा था। स यप्रकाश ने यही उत्तुकता से बच्चे को
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