गृह-दाह १७७ उसकी सफाई, सलीके और फुरती पर लोग मुग्ध हो जाते थे। अब वह पढ़ने से जी चुराता, मैले-कुचैले कपड़े पहिने रहता । घर में कोई प्रेम करनेवाला न था। बाजार के लड़कों के साथ गली-गली घूमता, कनकौवे लूटता, गालियाँ वकना भी सीख गया। शरीर भी दुर्बल हो गया। चेहरे की कान्ति गायव हो गयी। देवप्रकाश को अब आये-दिन उसकी शरारतों के उलाहने मिलने लगे और सत्यप्रकाश नित्य घुड़कियों और तमाचे खाने लगा, यहाँ तक कि अगर वह कभी घर में किसी काम से चला जाता, सब लोग दूर-दूर करके दौड़ते। शानप्रकाश को पढ़ाने के लिए मास्टर श्राता था। देवप्रकाश उसे रोज़ सैर कराने साथ ले जाते। हँसमुख लड़का था। देवप्रिया उसे सत्यप्रकाश के साथे से भी बचाती रहती थी। दोनों लड़कों में कितना अन्तर था ! एक साफ-सुथरा, सुन्दर कपड़े पहिने शील और विनय का पुतला, सच बोलनेवाला । देखनेवालों के मुँह से अनायास ही दुश्रा निकल पाती थी। दूसरा मैला, नटखट, चोरों की तरह मुंह छिपाये हुए, मुँह-फट, बात-बात पर गालियाँ बकनेवाला। एक हरा-भरा पौधा था, प्रेम से प्लावित, स्नेह से सिंचित; दूसरा सूखा हुआ, टेढ़ा, पल्लवहीन नववृक्ष था, जिसकी जड़ों को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देखकर पिता की छाती ठडी होती थी, दूसरे को देखकर देह में आग लग जाती थी। आधर्य यह था कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेशमात्र भी ईर्ष्या न यी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह अपने भाई के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही एक हरियाली थी। ईर्ष्या साम्य- भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से कहीं ऊँचा, कहीं भाग्यशाली समझता था। उसमे ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था। घृणा से घृणा उत्पन्न होती है। प्रेम से प्रेम । ज्ञानप्रकारा भी बढ़े भाई को चाहता था। कभी-कभी उसका पक्ष लेकर अपनी मों से वाद-विवाद कर बैटता । भैया की अचकन फट गयी है, आप नयी अचकन क्यों नहीं बनवा देती ? मो उत्तर देती-उसके लिए वही अचकन अच्छी है। अभी च्या अभी तो यह नंगा फिरेगा। शानप्रकाश बहुत चाहता था कि अपने जेदखर्च से
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