सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७८ मानसरोवर बचाकर कुछ अपने भाई को दे, पर सत्यप्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता था । वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शातिमय आनन्द का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिए वह सद्भावों के साम्राज्य में विचारने लगता। उसके मुख कोई भद्दी और अप्रिय बात न निकलती । एक क्षण के लिए उसकी सोई हुई अात्मा जाग उठती । एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया । पिता ने पूछा-तुम आजकल पढ़ने क्यों नहीं जाते ? क्या सोच रखा है कि मैंने तुम्हारी जिन्दगी- भर का ठेका ले रखा है ? सत्य०-मेरे ऊपर जुर्माने और फीस के कई रुपये हो गये हैं। जाता हूँ तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ देव -फीस क्यों बाकी है ? तुम महीने-महीने ले लिया करते हो न ? सत्य-आये दिन चन्दे लगा करते हैं, फीस के रुपये चन्दे में दे दिये। देव-और जुर्माना क्यों हुआ ? सत्य०- -फीस न देने के कारण । देव०-तुमने चन्दा क्यों दिया ! सत्य-ज्ञानू ने चन्दा दिया तो मैंने भी दिया । देव०-तुम शानू से जलते हो ? सत्य०-मैं शानू से क्यों जलने लगा । यहाँ हम और वह दो हैं, बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे पास कुछ नहीं है। देव०-क्यों, यह कहते शर्म आती है ? सत्य-जी हाँ, आपकी बदनामी होगी। तो आप मेरी मानरक्षा करते हैं। यह क्यों नहीं कहते कि पढ़ना अब मुझे मजूर नहीं है । मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हें एक- एक क्लास में तीन तीन साल पढ़ाऊँ और ऊपर से तुम्हारे खर्च के लिए भी प्रतिमास कुछ दूं। शान वावू तुमसे कितना छोटा है, लेकिन तुमसे एक ही दफा नीचे है। तुम इस साल जरूर ही फेल होोगे और वह जरूर ही पास होकर अगले साल तुम्हारे साथ हो जायगा । तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी? देव०-अच्छा,