२३० मानसरोवर मेंट के रूप में उपस्थित किये, किन्तु जब वे सब लौटा दिये गये तो उन्हें बहुत श्राश्चर्य हुआ। किसान प्रसन्न हुए, किन्तु चपरासियों का रक्त उबलने लगा। नाई और कहार खिदमत को आये, किन्तु लोटा दिये गये। अहीरों के घरों से दूध से भरा हुआ मटका आया, वह भी वापस हुआ । तमोली एक ढोली पान लाया, किन्तु वह भी स्वीकार न हुआ। असामी आपस में कहने लगे कि कोई धर्मात्मा पुरुप आये हैं। परन्तु चपरासियों को तो ये नयी बातें असह्य हो गयीं। उन्होने कहा- हुजूर, अगर आपको ये चीजें पसन्द न हों तो न लें, मगर रस्म तो न मिटायें। अगर कोई दूसरा श्रादमी यहाँ आयेगा तो उसे नये सिर से यह रस्म बाँधने में कितनी दिक्कत होगी १ यह सब सुनकर पडितजी ने केवल यही उत्तर दिया-जिसके सिर पर पड़ेगा वह भुगत लेगा। मुझे इसकी चिन्ता करने की क्या आवश्यकता ? एक चपरासी ने साहस बाँधकर कहा-इन असामियों को श्राप जितना गरीब समझते हैं उतने गरीब ये नहीं हैं । इनका ढंग ही ऐसा है। मेष बनाये रहते हैं। देखने में ऐसे सीधे सादे मानो बेसींग की गाय है, लेकिन सच मानिए, इनमें का एक एक श्रादमी हाईकोरट का वकील है। चपरासियों के इस वाद-विवाद का प्रभाव पडितजी पर कुछ न हुश्रा । उन्होंने प्रत्येक गृहस्थ से दयालुता और भाईचारे का आचरण करना आरम्भ किया । सवेरे से आठ बजे तक तो गरीबों को विना दाम औषधियाँ देते, फिर हिसाब-किताब का काम देखते । उनके सदाचरण ने असामियों को मोह लिया। मालगुजारी का रुपया, जिसके लिए प्रतिवर्ष कुरकी तथा नीलाम की आवश्यकता होती थी, इस वर्ष एक इशारे पर वसूल हो गया। किसानों ने अपने भाग सराहे और वे मनाने लगे कि हमारे सरकार की दिनों-दिन बढ़ती हो । । कुँवर विशालसिंह अपनी प्रजा के पालन पोषण पर बहुत ध्यान रखते थे। वे बीज के लिए अनाज देते और मजूरी और बैलों के लिए रुपये। फसल कटने पर एक का डेढ़ वसूल कर लेते ! चाँदपार के कितने ही असामी इनके ऋणी थे। चैत का महीना था । फसल कट-कटकर खलियानो में आ रही थी। खलियान में से कुछ नाज घर में आने लगा था। इसी अवसर पर कुँवर
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