२४४ मानसरोवर वह अपनी पत्नी को लेने के लिए कानपुर जा रहे हैं। उनका मकान कानपुर ही में है। उनका विचार है कि एक मासिक पत्रिका निकाले। उनकी कविताओं के लिए एक प्रकाशक १०००) देता है , पर उनकी इच्छा तो यह है कि उन्हें पहले पत्रिका में क्रमशः निकालकर फिर अपनी ही लागत से पुस्तकाकार छपवायें । कानपुर में उनकी जमींदारी भी है , पर वह साहित्यिक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं । जमींदारी से उन्हें घृणा है। उनकी स्त्री एक कन्या विद्यालय में प्रधानाध्यापिका हैं। आधी रात तक बातें होती रहीं। अब उनमें से अधिकाश याद नहीं हैं । हाँ! इतना याद है कि हम दोनों ने मिलकर अपने भावी जीवन का एक कार्यक्रम तैयार कर लिया था। मैं अपने भाग्य को सगहता था कि भगवान् ने बैठे-बिठाये ऐसा सच्चा मित्र भेज दिया । श्राधी रात बीत गयी, तो सोये । उन्हें दूसरे दिन ८ बजे की गाड़ी से जाना था। मैं जब सोकर उठा, तब ७ बज चुके थे । उमापतिजी मुँह हाथ धोये तैयार बैठे थे। बोले- आशा दीजिए-लौटते समय इघर ही से जाऊँगा। इस समय आपको कुछ कष्ट दे रहा हूँ । क्षमा कीजिएगा । मैं कल चला तो, प्रात.काल के 6 बजे थे। दो बजे रात से पड़ा जाग रहा था कि कहीं नींद न आ जाय । बल्कि यों समझिए कि सारी रात जागना पड़ा , क्यों चलने की चिन्ता लगी हुई थी। गाड़ी में बैठा तो झपकियों आने लगीं। कोट उतारकर रख दिया और लेट गया, तुरंत नींद आ गयी। मुगलसराय में नींद खुली। कोट गायब ! नीचे- ऊपर, चारों तरफ देखा, कही पता नहीं। समझ गया, किसी महाशय ने उड़ा दिया। सोने की सजा मिल गयी । कोट में ५०) खर्च के लिये रखे थे , वे भी उसके साथ उड़ गये । आप मुझे ५०) दें। पत्नी को मैके से लाना है , कुछ, कपड़े वगैरह ले जाने पड़ेंगे। फिर ससुराल में सैकड़ों तरह के नेग-जोग लगते हैं । क़दम-कदम पर रुपये खर्च होते हैं। न खर्च कीजिए, तो हँसी हो। मैं इधर से लौटूंगा, तो देता जाऊँगा। मैं बड़े सकोच में पड़ गया। एक बार पहले भी धोखा खा चुका था। तुरत भ्रम हुश्रा वहीं अबकी फिर वही दशा न हो। लेकिन शीघ्र ही मन के इस अविश्वास पर लज्जित हुआ। संसार में भी मनुष्य एक-से नहीं होते। यह वेचारे इतने सज्जन हैं। इस समय सफ्ट में पड़ गये हैं। और मैं मिथ्या
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