राज्य-भक्त २५५ . रहना चाहिए । खामकर जब आपकी खिदमत में हो। नहीं मालूम, किस वक्त इसकी जरूरत आ पड़े। दूसरे अँग्रेज-मुसाहवों ने भी इस विचार की पुष्टि की। वादशाह के क्रोध की ज्वाला कुछ शान्त हुई। अगर ये ही बातें किसी हिन्दुस्तानी मुसाहब की जवान से निकली होती, तो उसकी जान की खैरियत न थी । कदाचित् अंग्रेजों को अपनी न्याय परता का नमूना दिखाने ही के लिए उन्होंने यह प्रश्न किया था। बोले- कसम हज़रत इमाम की, तुम सब-के-सब शेर के मुँह से उसका शिकार छीनना चाहते हो ! पर मैं एक न मानूँगा , बुलाओ कप्तान साहब को । मैं उनसे यही सवाल करता हूँ। अगर उन्होंने भी तुम लोगों के खयाल की ताईद की, तो इसकी जान न लूंगा। और अगर उनकी राय इसके खिलाफ हुई, तो इस मकार को इसी वक्त जहन्नुम मेज दूंगा। मगर ख़बरदार, कोई उनकी तरफ किसी तरह का इशारा न करे • वर्ना मैं ज़रा भी रू-रिआयत न करूँगा । सब-के-सब सिर झुकाये बैठे रहें । कप्तान साहब थे तो राजा साहब के पाउरदे, पर इन दिनों बादशाह की उन पर विशेष कृपा थी। वह उन सच्चे राज-भक्तों में थे, जो अपने को राजा का नहीं, राज्य का सेवक समझते हैं । वह दरवार से अलग रहते थे । बादशाह उनके कर्मों से बहुत सतुष्ट थे। एक आदमी तुरन्त कप्तान साहब को बुला लाया । राजा साहब की जान उनकी मुट्टी में थी। रोशनुद्दौला को छोड़कर ऐसा शायद एक व्यक्ति भी न था, जिसका हृदय आशा और निराशा से न धड़क रहा हो । सब मन में भगवान् से यही प्रार्थना कर रहे थे कि कप्तान साहब किसी तरह से इस समस्या को समझ जायँ । कप्तान साहव आये, और उड़ती हुई दृष्टि से सभा की ओर देखा । सभी को प्राँखें नीचे झुकी हुई यो । वह कुछ अनिश्चित भाव से सिर झुकाकर खड़े हो गये । वादशाह ने पूछा-मेरे मुसाइयों को अपनी जेब में भरी हुई पिस्तौल रखना मुनासिब है या नहीं ? दरवारियों की नीरवता, उनके श्राशंकित चेहरे और उनकी चिंतायु अधीरता देखकर कप्तान साहब को वर्तमान समस्या की कुछ टोह मिल गयी यह निर्भीक भाव से बोले-टुजर, मेरे ख़याल में तो यह उनका फर्ज है । बादशा 3 5
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