राज्य-भक्त २६३ माधो-अब वह कैफियत नहीं है। दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं। उन्हें कोतवाल क्या, बादशाह-सलामत भी गिरफ्तार नहीं कर सकते । अब बार क्या रहूँ । दीवार के भी कान होते हैं। की कोई सुन ले; तो लेने के देने पर जायें। सौदागर-सेठना, पाप तो पहेलियाँ बुझवाने रगे। मैं परदेसी आदमी हूँ, यहाँ किससे कहने जाऊँगा । आखिर बात क्या है ? बाज़ार ज्या इतना विगहा हुया ६१ नाज की मही की तरफ गया था। सन्नाटा छाया हुया है ! मोटी जिस भी दूने दामों पर बिक रही थी। माधो ( इधर-उधर चौकन्नी आंखों से देखकर )-एक महीना हुआ; रोशनुद्दौला के हाथ में सियाह सफ़ेद का अख्तियार आ गया है । यह सब उन्हीं की बदइन्तज़ामी का फल है। उनके पहले राजा बरतावरसिंह हमारे मालिक थे । उनके वक्त में किसी की मजाल न थी कि व्यापारिया को टेदी आँख से देख सके । उनका रोब सभी पर छाया हुआ था । फिरंगियों पर उनको कड़ी निगाह रहती था । हुक्म या कि कोई फिरगी बाजार में प्रात्रे, तो थाने का सिपाही उसकी देख-भाल करता रहे। इसी वजह से फिरगी उनसे जला करते थे । ग्राखिर सबों ने रोशनुद्दौला को मिलाकर बख्तावर सिंह को बेकसूर कैद करा दिया । बस, तब से बाजार में लूट मची हुई है। सरकारी श्रमले अलग लूटते है । फिरंगी अलग नाचते-खसोटते है । जो चीज़ चाहते हैं, उठा ले जाते हैं। दाम मांगा तो धमकियों देते हैं। शाही दरबार में फरियाद करो, तो उलटे सज़ा होती है। अभी हाल ही में हम सब मिलकर बादशाह-सलामत की खिदमत में हाज़िर हुए थे। पहले तो बहुत नाराज़ हुए, पर आखिर रहम आ गया । बादशाहो का मिजाज ही तो है। हमारी सब शिकायतें सुनी और तनकीन दी कि हम तहकीकात करेंगे। मगर अभी तक तो वही लूट-खसोट जारी है। इतने में तीन आदमी राजपूती ढंग की मिर्जई पहने आफ्र दृवान के सामने खड़े हो गये । माधोदास उन्का रंग-ढग देकर चौका। शादी फौज के सिपाही बहुधा इसी सज धज से निकलते थे। तीनों श्रादमी सौदागर को देखकर ठिठके ; पर उसने उन्हें कुछ ऐसी निगाहों से देखा कि तीनों आगे चले गये। तब सौदागर ने माघोदास से पूछा-इन्हें देखकर तुम क्यों चौके ?
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