पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२५०

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अधिकार-चिता २७३ घटा दिखायी देती थी । कहीं नालों का मधुर कलरव था, कहीं झरनों का मन्द गान ; कहीं वृक्षों के सुखद पुज थे, कहीं रेत के सपाट मैदान । बड़ा सुरम्य मनोहर दृश्य था। यहाँ बढ़े तेज नखोवाले पशु थे, जिनकी सूरत देखकर टामी का कलेजा दहल उठता था, पर उन्होंने टामी की : छ परवा न की। वे आपस में नित्य का करते थे ; नित्य खून की नदी बहा करती थी। टामी ने देखा, यहाँ इन भयकर जन्तुश्रो से पेश न पा सकूँगा । उसने कौशल से काम लेना शुरू किया । जब दो लड़नेवाले पशुओं में एक घायल और मुर्दा होकर गिर पड़ता, तो टामी लपककर मांस का कोई टुकड़ा ले भागता और एकान्त में बैठकर खाता। विजयी पशु विजय के उन्माद में उसे तुच्छ समझकर कुछ न बोलता । श्रव क्या था, टामी के पौ-बारह हो गये । सदा दिवाली रहने लगी। न गुढ़ की कमी थी, न गेहूँ की। नित्य नये पदार्थ उड़ाता और वृक्षों के नीचे आनन्द से सोता । उसने ऐसे सुख स्वर्ग की कल्पना भी न की थी ! वह मरकर नहीं, जीते जी स्वर्ग पा गया। थोड़े ही दिनों में पौष्टिक पदार्थों के सेवन से टामी की चेष्टा ही कुछ और हो गयी । उसका शरीर तेजस्वी और सुसगठित हो गया। अब वह छोटे-मोटे जीवों पर स्वय हाथ साफ करने लगा। जगल के जंतु श्रव चौके और उसे वहाँ से भगा देने का यना करने लगे। टामी ने एक नयी चाल चली। वह कभी किसी पशु से कहता, तुम्हारा फौं शत्रु तुम्हें मार डालने की तैयारी कर रहा है ; किसी से कहता, परों तुमको गाली देता था । जगल के जन्तु उराके चकमे में आकर आपस में रह जाते और यामी की चादी हो जाती। अन्त में यहाँ तक नौबत पहुँची कि बड़े-बड़े जतुओं का नाश हो गया। छोटे-छोटे पशुओं फा उससे मुकाबला करने वा साहस न होता था। उसकी उन्नति और शक्ति देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यह विचित्र जीव आकाश से हमारे अपर शासन करने के लिए भेजा गया है। टामी भी अब अपनी शिकारवाजा फे जौहर दिखाकर उनकी इस भ्राति को पुष्ट किया करता था। बढ़े गर्व से कहता-"परमात्मा ने मुझे तुम्हारे ऊपर राज्य करने के लिए भेजा है। यह ईश्वर की इच्छा है । तुम श्राराम से अपने घर में पड़े रहो। मैं तुमसे कुछ ।