पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२५१

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मानसोरवर न बोलूंगा, केवल तुम्हारी सेवा करने के पुरस्कारस्वरूप तुममें से एकाध का शिकार कर लिया करूँगा । अाखिर मेरे भी तो पेट है , बिना आहार के कैसे जीवित रहूँगा और कैसे तुम्हारी रक्षा करूंगा ?" वह अब बड़ी शान से जगल में चारों ओर गौरवान्वित दृष्टि से ताकता हुआ विचरा करता । टामी को अब कोई चिन्ता थी तो यह कि इस देश में मेरा कोई मुद्दई न उठ खड़ा हो । वह नित्य सजग और सशस्त्र रहने लगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे और सुख-भोग का चसका बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों उसकी चिन्ता भी बढ़ती जाती थी। वह अब बहुधा रात को चौंक पड़ता और किसी अज्ञात शत्रु के पीछे दौड़ता । अक्सर "अन्धा कुकुर बतासे भूके” वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करता । बन के पशुओं से कहता-"ईश्वर न करे कि तुम किसी दूसरे शासक के पंजे में फंस जाओ। वह तुम्हें पीस डालेगा। मैं तुम्हारा हितैषी हुँ, सदैव तुम्हारी शुभकामना में मम रहता हूँ। किसी दूसरे से यह आशा मत रखो ।" पशु एक स्वर में कहते, "जब तक हम जियेंगे, आप ही के अधीन रहेंगे।" अाखिरकार यह हुआ कि टामी को क्षण-भर भी शाति से बैठना दुर्लभ हो गया। वह रात रात और दिन-दिन भर नदी के किनारे इधर-से-उधर चक्कर लगाया करता। दौड़ते-दौड़ते हाँफने लगता, बेदम हो जाता , मगर चित्त को शाति न मिलती । कहीं कोई शत्रु न घुस आये । लेकिन क्यार का महीना आया तो टामी का चित्त एक बार फिर अपने पुराने सहचरों से मिलने के लिए लालायित होने लगा। वह अपने मन को किमी मति रोक न सका | वह दिन याद आया जब वह दो-चार मित्रों के साथ किमी प्रेमिका के पीछे गली-गली और कूचे क्चे में चक्कर लगाता था । दो- चार दिन तो उमने सब किया, पर अत में आवेग इतना प्रवल हुआ कि वह तकदीर ठोककर उठ खड़ा हुआ । उमे अव आने तेज ओर बल पर अभिमान भी था । दो-चार को तो वही मजा चखा सकता था। किन्तु नदी के इस पार आते ही उसका आत्मविश्वास प्रातःकाल के तम के समान फटने लगा। उसकी चाल मन्द पड़ गयी, श्राप ही बार सिर मुक गया, दुम सिकुड़ गयो। मगर एक प्रेमिका को आते देव कर वह विहल हो उठा , उसके पीछे हो लिया । प्रेमिका को उसकी वह कुचेष्टा अप्रिय लगी।