सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दुराशा (प्रहसन) . पात्र- दयाशंकर-कार्यालय के एक साधारण लेखक । आनन्दमोहन-कालेज का एक विद्यार्थी तथा दयाशकर का मित्र । ज्योतिस्वरूप-दयाशंकर का एक सुदूर-सबन्धी । सेवती-दयाशंकर की पत्नी । (होली का दिन) ( समय-६ बजे रात्रि, श्रानन्दमोहन तथा दयाशकर वार्तालाप करते जा रहे हैं।) आ०-हम लोगों को देर तो न हुई । अभी तो नौ बजे होंगे ? द०-नहीं, अभी क्या देर होगी ! आ०-वहाँ बहुत इन्तजार न कराना। क्योंकि एक तो दिन-भर गली- गली घूमने के पश्चात् मुझमे इन्तजार करने की शक्ति ही नहीं, दूसरे ठीक ग्यारह बजे बोर्डिङ्ग हाउस का दरवाजा बन्द हो जाता है। - अजी, चलते-चलते थाली सामने आयेगी। मैंने तो सेवती से पहले ही कह दिया है कि नौ बजे तक सब सामान तैयार रखना । आ०-तुम्हारा घर तो अभी दूर है । यहाँ मेरे पैरों में चलने की शक्ति ही नहीं । आओ, कुछ बात-चीत करते चलें । भला यह तो बतायो कि परदे के सम्बन्ध में तुम्हारा क्या विचार है ? भाभीजी मेरे सामने आयेंगी या नहीं, क्या मैं उनके चन्द्रमुख का दर्शन कर सकूँगा ? सच कहो । द०-तुम्हारे और मेरे बीच में तो भाईचारे का सम्बन्ध है। यदि सेवती मुँह खोले हुए भी तुम्हारे सम्मुख आ जाय तो मुझे कोई ग्लानि नहीं। किन्तु साधारणतः मैं परदे की प्रथा का सहायक और समर्थक हूँ। क्योंकि हम द०-