दुराशा २७६ ग्रा०- या०- श्रा०- द.-सारा मजा किरकिरा हो गया। कुमानुषों के साथ बैठकर खाना फोड़े के आप्रेशन के बराबर है। -किसी उपाय से इन्हें विदा कर देना चाहिए । द०-मुझे तो चिन्ता यह है कि अब ससार के कार्यकर्ताओं में हमारी और तुम्हारी गणना ही न होगी। पाला इसके हाथ रहेगा। -खैर, ऊपर चलो। श्रानन्द तो जब श्रावे कि इन महाशय को श्राधे पेट ही उठना पड़े। (तीनो आदमी उपर जाते है।) द०-अरे ! कमरे में भी रोशनी नहीं, धुप अँधेरा है । लाला ज्योतिस्वरूप, देखिएगा, कहीं ठोकर खाकर न गिर पड़िएगा । -अरे ग़जव......( श्रालमारी से टकराकर घम से गिर पड़ता है)। द०~लाला ज्योतिस्वरूप, क्या श्राप गिरे १ चोट तो नहीं आयी ? आ० - अजी, मैं गिर पड़ा। कमर टूट गयी। तुमने अच्छी दावत की। द०~भले श्रादमी, सैकड़ों बार तो आये हो । मालूम नहीं था कि सामने अलमारी रखी हुई है ? क्या ज़्यादा चोट लगी ? श्रा०- -भीतर जायो। थालियों लाओ और भाभीजी से कह देना कि थोड़ा-सा तेल गर्म कर लें । मालिश कर लूँगा। ज्योतिo-महाशय, यह अापने क्या रख छोड़ा है । ज़मीन पर गिर पड़ा। द०-उग़ालदान तो नहीं लुढ़का दिया ? हाँ, वही तो है। सारा फर्श खराब हो गया। प्रा०-बन्धुवर, जाकर लालटेन जला लायो । कहाँ लाकर काल-कोठरी में डाल दिया ! द०-(घर में जाकर ) अरे ! यहाँ भी अँधेरा है ! चिराग तक नहीं। सेवती, कहाँ हो ? से०-बैठी तो हूँ। -यह वात क्या है ? चिराग़ क्यों नहीं जले ! तबीयत तो अच्छी है ? सेल-बहुत अच्छी है । वारे, तुम आ तो गये ! मैने समझा था कि श्राज आपका दर्शन ही न होगा।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२५६
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