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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२६३

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२८६ मानसरोवर प्रा०- द०- आ०- वस्तुएँ क्या हुई जिनका आपने वादा किया था और जिनका स्मरण में प्रेमा- नुरक्त भाव से कर रहा हूँ? द०-ज्योतिस्वरूप कहाँ गये ? -ऊर्ध्व ससार में भ्रमण कर रहे हैं । बड़ा ही अद्भुत उदासीन मनुष्य है कि आते ही आते सो गया । और अभी तक नहीं चौंका । -मेरे यहाँ एक नयी दुर्घटना हो गयी। उसे और क्या कहूँ । सब सामान मौजूद और चूल्हे में श्राग न जली । - खूब ! यह एक ही रही । लकड़ियों न रही होंगी। द०-घर में तो लकड़ियों का पहाड़ लगा है। अभी थोड़े ही दिन हुए कि गाँव से एक गाड़ी लकड़ी यो गयी थी। दियासलाई न थी। आ०-( अट्टहास कर ) वाह ! यह अच्छा प्रहसन हुआ। थोड़ी सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया । कम से कम मेरी तो बघिया बैठ गयो । द०-क्या कहूँ मित्र, अत्यन्त लज्जित हूँ। तुमसे सत्य कहता हूँ। आज से मैं परदे का शत्रु हो गया । इस निगोडी प्रथा के बन्धन ने ठीक होली के दिन ऐसा विश्वासघात किया कि जिसकी कभी भी सभावना न थी। अच्छा अब बतलाओ, बाजार से लाऊँ पूरियों ? अभी तो ताजी मिल जायेगी। श्रा०-बाजार का रास्ता तो मैंने भी देखा है। कष्ट न करो। जाकर बोर्डिङ्ग हाउस में खा लूँगा। रहे ये महाशय, मेरे विचार में तो इन्हें छेड़ना ठीक नहीं । पड़े-पड़े खर्राटे लेने दो । प्रात काल चौकेगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे। द०-तुम्हारा यों वापस जाना मुझे खल रहा है। क्या सोचा था, क्या हुआ ! मजे ले-लेकर समोसे और कोफ्ते खाते और गपड़चौथ मचाते । सभी आशाएँ मिट्टी में मिल गयों। ईश्वर ने चाहा तो शीघ्र ही इसका प्रायश्चित करूँगा। आ०-मुझे तो इस बात की प्रसन्नता है कि तुम्हारा सिद्धान्त टूट गया । अब इतनी आज्ञा दो कि भाभीजी को धन्यवाद दे पाऊँ। द०-शौक़ से जानो। आ०-( भीतर जाकर ) भाभीजी साष्टाग प्रणाम कर रहा हूँ। यद्यपि श्राज के अकाशी भोज से मुझे दुराशा तो अवश्य हुई, किन्तु वह उस