पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/४८

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रानी सारन्धा ६९ इतना सुनते ही सारन्धा के मुरझाये हुए मुख पर लाली दौड़ गयो । ऑसू सख गये । इस पाशा ने कि मैं पति के कुछ काम या सकती हूँ, उसके हृदय में बल का सचार कर दिया। वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देखकर बाली-ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊँगी। रानी ने समझा, राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं। चम्पतराय-तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली। सारन्धा-मरते दम तक न टालूँगी। राजा-~-यह मेरी अन्तिम याचना है। इसे अस्वीकार न करना । सारन्धा ने तलवार निकालकर अपने वक्ष स्थल पर रस ली और कहा- यह आपकी श्राशा नहीं है। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो। चम्मतराय-तुमने मेरा मतलब नहीं समझा | क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं वेदियों पहने हुए दिल्ली की गलियों में निन्दा का पात्र बनें? रानी ने जिज्ञासा-दृष्टि से राजा को देखा। वह उनका मतलब न समझी। राजा-मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ। रानी-सहर्प माँगिए । राजा-यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है । जो कुछ कहूँगा, करोगी? रानी-सिर के बल करूँगी। राजा-देखो, तुमने वचन दिया है । इनकार न करना ! रानी-(कॉप कर ) श्रापके कहने की देर है। राजा-अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो ? रानी के हृदय पर वज्राघात-सा हो गया । बोली-जीवननाथ! इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी । आँखों में नैराश्य छा गया । राजा-मैं वेड़ियाँ पहनने के लिए वित रहना नहीं चाहता। रानी-मुझसे यह कैसे होगा ? पाँचवों और अन्तिम सिपाही धरती पर गिरा | राजा ने हुँझलाकर कहा- इसी जीवट पर आन निभाने का गर्व था ?