शाप
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की निवृत्ति करें। मेरा कोई ऐसा ग्राम नहीं है जहाँ मेरी अोर से सफाई का
प्रबन्ध न हो। छोटे-छोटे गाँवों में भी आपको लालटेने जलती हुई मिलेंगी।
दिन का प्रकाश ईश्वर देता है, रात के प्रकाश की व्यवस्था करना राजा का
कर्तव्य है । मैंने सारा प्रबन्ध पण्डित श्रीधर के हाथों में दे दिया है। सबसे प्रथम
कार्य जो मैंने किया वह यह था कि उन्हें हूँद निकालूँ और यह भार उनके सिर
रख दूँ । इस विचार से नहीं कि उनका सम्मान करना मेरा अमीष्ट या, बल्कि
मेरी दृष्टि में कोई अन्य पुरुष ऐसा कर्त्तव्य-परायण, ऐसा निस्पृह, ऐसा सच्चरित्र
न था । मुझे पूर्ण विश्वास था कि वह यावज्जीवन रियासत की बागडोर अपने
हाथ में रखेंगे । विद्याधरी भी उनके साथ है । वही शाति और सतोप की मूर्ति,
वही धर्म और व्रत की देवी । उसका पातिव्रत अब भी ज्ञानसरोवर की भांति
अपार और अथाह है । यद्यपि उसका सौंदर्य-सूर्य अब मध्याह्न पर नहीं है, पर
अब भी वह रनिवास की रानी जान पढ़ती है । चिन्ताओं ने उसके मुख पर
शिकन डाल दिये हैं। हम दोनों कभी कभी मिल जाती हैं, किन्तु बात-चीत की
नौबत नहीं पाती । उसकी ऑखें झुक जाती हैं । मुझे देखते ही उसके ऊपर
घड़ों पानी पढ़ जाता है और उसके माथे के जलबिन्दु दिखाई देने लगते हैं।
मैं आपसे सत्य कहती हूँ कि मुझे विद्याधरी से कोई शिकायत नहीं है। उसके
प्रति मेरे मन में दिनों-दिन श्रद्धा और भक्ति बढ़ती जाती है। उसे देखती है,
तो मुझे प्रबल उत्कंठा होती है कि उसके पैरों पर पढ़ें । पतिव्रता स्त्री के दर्शन
बड़े सौभाग्य से मिलते हैं। पर केवल इस भय से कि कदाचित् वह इसे मेरी
खुशामद समझे, रुक जाती हूँ । अब मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अपने
स्वामी के चरणों में पड़ी रहूँ और जब इस ससार से प्रस्थान करने का समय
आये तो मेरा मस्तक उसके चरणों पर हो। और अन्तिम जो शब्द मेरे मुँह से
निकले वह यदी कि-'ईश्वर, दूसरे जन्म में भी इनकी चेरी बनाना।"
पाठक, उस सुन्दरी का जीवन-वृत्तान्त सुनकर मुझे जितना कुतूहल हुआ
वह अकथनीय है । खेद है कि जिस जाति में ऐसी प्रतिभाशालिनी देवियों उत्पन्न
हो उस पर पाश्चात्य के कल्पनाहीन, विश्वासहीन पुरुष उँगलियो उठायें ? समस्त
यूरोप में भी एक ऐसी सुन्दरी न होगी जिससे इसकी तुलना की जा सके। हमने
स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को सांसारिक सम्बन्ध समझ रखा है। उसका श्राध्यात्मिक
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/६४
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