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मानसरोवर

( ५ )

कुछ दिनों के बाद शिवदास भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। खेत का काम मजूरों पर आ पड़ा। मथुरा मज़दूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतन्त्र रूप से काम लेने का कभो अवसर न मिला था। खुद पहले भाई को निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी में करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनती नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे ; इसलिए प्यारी को अब दिन में दो चार चक्कर हार का भी लगाना पड़ता। कहने को तो वह ब भी मालकिन थी, पर वास्तव में घर-भर की सेविका थी। मजूर भी उससे योरिया बदलते, जमीदार का प्यादा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में भी किफायत करनी पड़ती। लरकों को तो जितनी बार मांगें उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए ! दुलारी तो लड़कोरी थी, उसे भी भरपूर भोजन चाहिए, मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था। मजूर भला क्यों रिआयत करने रगे थे। सारी कसर बेचारी प्यारी पर निकलती थी। वही एक फालतू चोन थी , अगर आधा ही पेट खाय. तो किसी को कोई हानि न हो सकती थी तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गये, कमर झुक गई, आँखों की जोतः कम हो गई। मगर वह प्रसन्न थी। स्वामित्व का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।

एक दिन मथुरा ने कहा --- भाभी, अब तो कही परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में कोई बरक्कत नहीं। किसी तरह पेट की रोटिया चल जाती हैं। वह भी रो-धोकर कई आदमी पुरब से आये हैं वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रुपये रोज़ की मजूरी हो जाती है। चार-पांच साल भा रह गया, तो मालोमाल हो जाऊँगा। अभ भागे लड़के-गले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।

दुलारी ने समर्थन किया --- हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गई, लड़कों को तो आदमी बनाना है।

प्यारी यह प्रस्ताव सुनकर अवाक रह गई उनका मुंह ताकने लगी। इसके पहले इस तरह की बात-चीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसे सवार हो गई। उसे सन्देह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पन्न हुई है। बालो. मैं तो आने को न कहूँगी, मागे जैसी तुम्हारी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने-लिखाने के लिए यहाँ भी