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मानसरोवर


यहाँ उसको भी खिलाने का दावा रखती हूँ। उसके चिट्ठी भेजने से मुझे कोई निधि न मिल जाती। उसे अगर मेरी चिन्ता नहीं है तो मैं कब उसकी परवाह करता हूँ।

घर में तो अब विशेष कोई काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती-बारी के कामों में लगी रहती। खर्बुजें बोये थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा दूध घर में खर्च हो जाता था, अब विकने लगा। प्यारी की मनोवृत्तियों में भी एक विचित्र परिवर्तन आ गया। वह अम साफ-सुथरे कपड़े पहनतो, मांग-चोटी की ओर से भी उतनी उदासीन न थी। आभूषणों में भी रुचि हुई। रुपये हाथ में आते ही उसने सपने गिरवी गहने छुड़ाये और भोजन भी सयम से करने लगी ! सागर पहले खेतों को सींचकर खुद खाली हो जाता था। अब निकास की नालियां बन्द हो गई थी। सागर में पानी जमा होने लगा और अव उसमें हलकी-हलकी लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।

एक दिन जोखू हार से लौटा, तो अँधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा --- अब तक वहाँ क्या करता रहा ?

जोखू ने कहा --- चार क्यारियां बच रही थी। मैंने सोचा, दस मोट और खींच दूं। कल का झंझट कौन रखे।

जोखू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह हौले-बहाने करता था। अब सब-कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन हार में थोड़े ही रह सकती थी , इसलिए अब उसमें ज़िम्मेवारी आ गई थी।

प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा-अच्छा, हाथ-मुँह धो डालो। आदमी जान रखकर काम करता है, हाय-हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज न होते, कल होते, क्या जल्दी थी।

जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ में कारगुज़ारी को थी और समझा था, तारीफ़ होगी। यहाँ आलोचना हुई। चिढ़कर बोला-माल. किन, तुम दाइने-बायें दोनों ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो। कल के लिए तो उँचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं। आज बड़ी मुसकिल से कुआं खाली हुआ । सवेरे मैं न पहुँचता, तो कोई और भाकर न छेक लेता ? फिर -अठवारे तक राह देखनी पड़तो। तब तक 'तो सारी ऊख बिदा हो जाती।