कर रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आंखें मींचकर
फिर खोल देता था। रह-रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस
विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहाँ छिप जाता था हरिधन को
अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था। उसकी बाल-
स्मृतियां उन्हीं चमकीले तारों की भांति प्रज्वलित हो गई। वह अपना छोटा-सा
घर, वह आम का भाग जहाँ वह केरियां चुना करता था, वह मैदान जहाँ वह कबड्डी
खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय
मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गई। उन आँखों में जितनी करुणा थी, कितनी दया थी।
उसे ऐसा जान पड़ा मानों माता आँखों में मासू-भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए
हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही है। वह उल मधुर भावना में अपने को भूल
गया। ऐसा जान पड़ी मानों माता ने उसे छाती से लगा लिया है और उसके सिर पर
हाथ फेर रही है। वह रोने लगा, फूट फूट कर रोने लगा। उसो आत्म सम्माहित दशा।
में उसके मुंह से यह शब्द निकले --- अम्माँ, तुमने मुझे इतना भुला दिया। देखो,
तुम्हारे प्यारे लाल को क्या दशा हो रहो है ! कोई उसे पानी को भी नहीं पूछता।
क्या जहाँ तुम हो वहाँ मेरे लिए जगह नहीं है।
सहसा गुमानी ने भाकर पुकारा --- क्या सो गये तुम, नौज किसी को ऐसी राच्छसी नींद आये! चलकर खा क्यों नहीं लेते? का तक कोई तुम्हारे लिए बैठारहे।
हरिधन उस कल्पना अगत् से कर प्रत्यक्ष मे आ गया। वही कुएँ की जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी --- कम तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे।
हरिधन उठ बैठा और मानों तलवार ग्यान से निकालकर बोला --- भला, तुम्हें मेरी सुध तो आई। मैने तो कह दिया था, मुझे भूख नहीं है।
गुमानी --- तो के दिन न खाओगे ?
'अब इस घर का पानी भी न पीऊँगा, तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं?
दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शन्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली-कहाँ जा रहे हो?
हरिधन ने मानों नशे में कहा --- तुझे इससे क्या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं।