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मानसरोवर


से नाहक करते थे। बड़ी सीधी है बेचारी। बस, अपनी मां ही समझो। तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे ?

हरिधन --- उसका अब मुंह न देखूगा‌। मेरे लिए वह मर गई।

मँगरू --- तो दूसरी सगाई हो जायगी। अबकी ऐसो मेहरिया ला दूँगा कि उसके पैर धो-धो पिओगे ; लेकिन कहीं पहली भी आ गई तो?

हरिधन --- वह न आयेगी।

( ७ )

हरिधन अपने घर पहुंचा तो दोनों भाई, 'भैया आये। भैया आये! कहकर भीतर दौड़े और मां को खबर दी।

उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शान्त महिमा का अनुभव हुआ मानों वह अपनी मां की गोद में बैठा हुआ है। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था। जहां पहले अभिमान था, आप्रथा, हेकड़ो थो; वहाँ अब निराशा थी, पराजय थी और याचना थी। बीमारी का जोर कम हो चला था, अब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थो, किले की दीवारें छिद चुको थी, अब उसमें घुस जाना असाध्य न था। वही घर जिससे वह एक दिन विरक हो गया था, अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था। इरिधन का निरवलम्ब मन यह माश्रय पाकर मानों तृप्त हो गया।

शाम को विमाता ने कहा --- बेटा, तुम पर आ गये, हमारे धन भाग। मब इन बच्चों को पालो, मां का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटो दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी। तुम्हारी अम्मा से मेरा बहन का नाता है। उस नाते से भो तुम मेरे लड़के होते हो।

हरिधन की मातृ-विह्वल आँखों को विमाता के रूप में अपनी माता के दर्शन हुए। घर के एक-एक कोने में मातृ स्मृतियों की छटा चाँदनी को भांति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुखमण्डल भी उसो छटा से रजित भा। दूसरे दिन हरिधन फिर कन्धे पर हल रखकर खेत को चला। उसके मुख पर उल्लास था और आंखों में गर्द। वह अब किसी का आश्रित नहीं, आश्रयदाता था; किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था।