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दिल की रानी


प्रदान किया था। वह जब तक सत्यासत्य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्वीकार न करती ; मां-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशान्ति त हुईपर जब तक इस्लाम का अच्छी तरह अध्ययन न कर ले, वह केवल मां-बाप को खुश करने के लिए इस्लाम की दीक्षा न ले सकती थी। माँ-बाप भी उस पर किसी तरह का दवाव डालना चाहते थे। जैसे उन्हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ़ रहने का भी अधिकार है। लड़को को सन्तोष हुआ; लेकिन उसने इस्लाम और ज़रतरत धर्म-दोनों ही का तुलनात्मक अध्ययन आरम्भ किया, और पूरे दो साल के अन्वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की देक्षा ली। माता-पिता फूले न समाये। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है बल्कि स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से । दो साल तक उन्हें जो एक शा घेरे रहती थी, वह मिट गई।

यज़दानी के कोई पुत्र न था और उस युग में, जब कि आदमी की तलवार हो सबसे बड़ी अदालत थो, पुत्र का न रहना ससार का सबसे बड़ा दुर्भाग्य था। यजदानी बेटे का अरमान बेटो से पूरा करने लगा। लड़को हो की भांति उसको शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वह बालकों के-से कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्त्र विद्या सोखती और अपने माप के साथ अक्सर खलीफा वायनीद के महलों में जाती और राज- कुमारी के साथ शिकार खेलने जाती ! इसके साथ हो वह दर्शन, काव्य, विज्ञान और अध्यात्म का भी अभ्यास करती थी। यहां तक कि सोलहवें वर्ष में वह फौजी विद्यालय में दाखिल हो गई और दो साल के अन्दर यहाँ को सबसे ऊँचो परीक्षा पास काके फौज में नौकर हो गई। शस्त्र-विद्या और सेना सञ्चालन-कला में वह इतनी निपुण थी और खलीफा वायज़ीद उसके चरित्र से इतना प्रसन्न था कि पहले हो पहल उसे एक हजारी मन्सब मिल गया। ऐसी युवती के चाहने वालों की क्या कमी ? उसके साथ के कितने ही अफसर, राज-परिवार के कितने ही युवक उस पर प्राण देते थे ; पर कोई उसको नजरों में न अँचता था। नित्य ही निकाह के पैगाम आते रहते थे ; पर वह हमेशा इन्कार कर देती थी। वैवाहिक जीवन ही से उसे अरुचि थी। उसकी समाधीन प्रकृति इस बन्धन में न पड़ना चाहती थी। फिर नित्य ही वह देखती थी कि युवतियाँ- कितने अरमानों से ब्याह कर लाई जाती हैं और फिर कितने निरादर से महकों में बन्द कर दी जाती हैं। उनका भाग्य पुरुषों की दया के अधीन है। अक्सर ऊँचे