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धिक्कार

एक मित्र बोले --- क्यों इन्द्र तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्या सलाह देते हो ? बनाय कहाँ घोसना, या योही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें ? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अन्तर है।

इन्द्रनाथ ने मुसकिराकर कहा --- यह तो तकदीर का खेल है भाई, सोलहों आना तकदीर का। अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरक-तुल्य है तो दूसरी दशा में स्वर्ग से कम नहीं।

दूसरे मित्र बोले --- इतनी आजादी तो भला क्या रहेगो ?

इन्द्रनाथ --- इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोङ्ग सिनेमा देखकर बारह बजे घर लौटना चाइते हो, नौ बजे सोकर ठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महाने सूट बनवाते हो, तब शायद साल भर में भी न बनवा सको।

'श्रीमतीजी तो आज रात को गाड़ी से आ रही हैं?

'हाँ, मेल से। मेरे पथ चचकर उन्हें रिसीव करोगे न?'

'यह भी पूछने की बात है। अब पर कौन जाता है। मगर कळ दावत खिलानी पड़ेगी।'

सहसा तार के चपरासी ने आकर इन्द्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।

इन्द्रनाथ का चेहरा खिल उठा झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते हो उसका हृदय धक से हो गया, सांस रुक गई, सिर घूमने लगा। आँखों की रोशनी लुप्त हो गई, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हो। उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया और दोनों हाथों से मुंह ढोपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढते हो इतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे और क्या हो गया।

तार में लिखा था मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसको लाश लालपुर से तीन मौल पर पाई गई। मैं लालपुर में हूँ। तुरन्त भाभी।

एक मित्र ने कहा --- किसी शत्रु ने झड़ी खवा न मेज दी हो ?

दुसरे मित्र बोले --- हाँ, कभी-कभी लोग ऐसो शरारते करते हैं।