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धिक्कार

इन्द्रनाथ ने हाथ-मुँह धोते हुए कहा --- मैंने तो कहा था चलो लेकिन डर के मारे नहीं आते।

'और था कहाँ इतना दिन ?'

'कहते थे, देहातों में घूमता रहा।'

'तो क्या तुम अकेले बंबई से आये हो ?

'जो नहो, अम्माँ भी आई है।'

गोकुल की माता ने कुछ सकुचकर पूछा --- मानी तो अच्छी तरह है?

इन्द्रनाथ ने हँसकर कहा --- जी हाँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के घधर्ना से छूट गई।

माता ने अविश्वास करके कहा-चल नटखट कहाँ का। बेचारी को कोस रहा है। मगर इतनी जल्द बम्बई से लौट क्यों आये।

इ द्रनाथ ने मुसकिराते हुए कहा --- क्या करता। माताजो का तार बबई में मिला फि मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दे दिये। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा हुआ आया। वही दाह क्रिया की। आज घर चला आया। अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

वइ और कुछ न कह सका। आँसुओं के वेग ने गला बन्द कर दिया। जेब से एक पत्र निकालकर माता के सामने रखता हुआ बोला --- उनके सदूक में महो पत्र मिला है।

गोकुल की माता कई मिनट तक मर्माहत सी बैठी ज़मीन की ओर ताकतो रही। शोक और उससे अधिक पश्चात्ताप ने सिर को दबा रखा था। फिर पन्त्र उठाकर पढ़ने लगी ---

'स्वामी !'

जब यह पत्र आपके हार्थों में पहुंचेगा तब तक मैं इस ससार से विदा हो जाऊँगी। मैं वही अभागिनी हूँ। मेरे लिए इस ससार में स्थान नहीं है। आपको भी मेरे कारण क्लेश और निन्दा ही मिलेगी। मैंने सोचकर देखा और यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना हो अच्छा है। मुझपर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ ? जीवन में मैंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की ; परन्तु मुझे दुःख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अतिम याचना है कि मेरे लिए आप शोक न कीजिएगा। ईश्वर आपको सदा सुखो रखे ।'

माताजी ने पत्र रख दिया और आंखों से आंसू बहने लगे। बरामदे में वंशीधर निस्सद खड़े थे और मानी लग्नानत उनके सामने खड़ी थी।