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मानसरोवर

शोफर ने समीप आकर कहा --- रानी साहन आई हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। नेहोश पड़ी हुई हैं।

कुँअर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा ---- तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहां कोई वैद्य-हकीम नहीं है ?

शोफर ने सिटपिटाकर जवाब दिया --- हुजूर, वह किसी तरह मानती ही न था, तो मैं क्या करता?

कुँअर साहब ने डांटा, चुप रहो जी, बातें न बनाओ ! तुमने सामना होगा, शिकार की बहार देखेंगे और पड़े पड़े सोयेंगे । तुमने वापस चलने को कहा ही न होगा।

शोफर --- वह मुझे डाँटती थी हुजूर ?

'तुमने कहा था ?'

'मैंने कहा तो नहीं हुजूर ?'

'बस तो चुप रहो। मैं तुमको भी पहचानता हूँ। तुम्हे मोटर लेकर इसो वक्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ है ?'

शोफर ने दबी हुई आवाज़ में कहा --- एक मोटर पर विस्तर और कपड़े हैं। एक पर खुद रानी साहब हैं।

'यानी और कोई साथ नहीं है?'

"हुजूर ! में तो हक्म का ताबेदार हूँ।'

'बस, चुप रहो।'

यो झल्लाते हुए कुँअर साहब वसुधा के पास गये और आहिस्ता से पुकारा। जब कोई जवाब न मिला, तो उन्होंने धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा। सिर गर्म तवा हो रहा था। उस ताप ने मानों उनकी सारी क्रोध ज्याला को खींच लिया। लपककर मंगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया, पलंग विठवाया, अचेत वसुधा को गोद में उठाकर कमरे में लाये और लिटा दिया। फिर उसके सिरहाने खड़े होकर उसे व्यथित नेत्रों से देखने लगे। उस धूल से भरे मुस्तमडल और विखरे हुए रज-रंजित देशों में आज उन्होंने आग्रहमय प्रेम की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव- सिगार ही में मगन थी, आज धूल के पौडर भौर पोमेड में वह उसके नारीत्व का दर्शन कर रहे थे। उसमें कितना आग्रह था, कितनी लालसा थी, अपनी उड़ान के