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गिला


जाता है । इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं । दफ्तर में इन्हे 'पिस्सू'-'पिरसू आदि उपा धियां मिली हुई हैं , मगर पडाव कितना ही कड़ा मारें, इनके भाग्य में वही सूखो घास लिखी है। यह विनय नहीं है। स्वाधीन-मनोवृत्ति भी नहीं है, मैं तो इसे समय- चातुरी का अभाव कहती हूँ, व्यावहारिक ज्ञान को क्षति कहतो हूँ । आखिर कोई अफसर आपसे क्यों प्रसन्न हो ? इसलिए कि भाप बड़े मेहनती है? दुनिया का काम मुरौवत और रवादारी से चलता है। अगर हम किसी से खिंवे रहें, तो कोई कारण नहीं कि वह भी हमसे न खिचा रहे । फिर जन्म मन में क्षेाम होता है, तो वह दसतरो हारों में भी प्रकट हो ही जाता है। जो मातहत अफसर को प्रसन्न रखने सौ चेष्टा करता है, जिसको जात से अफसर का कोई व्यक्तिगत पार होता है, जिस पर वह विश्वास कर सकता है, उसका लिहाज वह स्वभावत. करता है। ऐसे चिरागियों से क्यों किसी को सहानुभूति होने लगी। अफसर भी तो मनुष्य है। उसके हृदय में जो सम्मान और विशिष्टता की कामना है, यह कहाँ पूरी हो । प्रजा अधीनस्थ कर्मचारी ही उससे फिरंट रहें, तो क्या उसके अफसर से सलाम करने आयेंगे? आपने जहाँ नौकरी की, वहीं से निकाले गये। कभी किसी दफ्तर में दो तीन साल से क्यादा न टिके । या तो अफघर से लड़ गये, या कार्याधिक्य के कारण छोड़ बैठे।

आपको कुटुम्ब सेवा का दावा है। आपके कई भाई-भतीजे होते है, वह कभी इनकी बात भी नहीं पूछते, आप बराबर उनका मुंह ताकते रहते हैं। इनके एक भाई पाइन आजकल तहसीलदार हैं । घर की मिल्कियत सन्हीं की निगरानी में है। वह ठाट से रहते हैं। मोटर रस को है, कई नौकर चार हैं ; मगर यहां भूले से भो पत्र नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की बड़ी तगो हुई। मैंने कहा-अपने भ्राताजी से क्यों नहीं मांग लेते ? कहने लगे --- उन्हें क्यो चिन्ता में डाल् । उन्हें भी तो अपना खर्च है । कौन-सी ऐसी पचत हो गती होगी। जब मैंने बहुत मजबूर किया, तो भापने पत्र लिखा। मालूम नहीं', पत्र में क्या लिखा पत्र लिखा या मुन्ने चकमा दे दिया; पर रुपये न आने थे, न आये। कई दिनों के बाद मैंने पूछा --- कुछ जवाब आया श्रीमान् के भाई साहब के दरबार से ? आपने रुष्ट होकर कहा --- अभी केवल एक सप्ताह तो खत पहुंचे हुए, अभी क्या जवाब आ सकता है ? एक सलाह और गुजरा; मगर जवाम नदारद । अब आपका यह हाल है कि मुझे कुछ बातचीत करने का अवसर ही नही देते। इतने प्रमन्न-चित्त नज़र आते है कि क्या

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