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माँ

( २ )

सात वर्ष बीत गये।

बालक प्रकाश अब दस साल का रूपवान्, बलिछ, प्रसन्नमुख कुमार था, बला की तेज, साहसी और मनस्वी। भय तो उसे छू भी नहीं गया था। करुण का सतप्त हृदय उसे देखकर शीतल हो जाता। संसार करुणा को अभागिन और दीन समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीं रोती। उसने उन आभूषणों को बेच डाला, जो पति के जीवन में उसे प्राणों से प्रिय थे, और उस धन से कुछ गायें और भैंसे मोल ले लो। वह कृषक की बेटी थी, और गो-पालन उसके लिए कोई नया व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीविका का साधन बनाया। विशुद्ध दूध कहाँ मयस्सर होता है ? सम दुध हाथों हाथ बिक जाता। करुणा को पहर रात से पहर रात तक काम में लगा रद्द पड़ता , पर वह प्रसन्न थी। उसके मुख पर निराशा या दोनता की छाया नहीं, सकल्प और साहस का तेज है। उसके एक-एक अग से आरम-गौरव झी ज्योति-सी निकल रही है ; आँखों में एक दिव्य प्रकाश है, भीर, अथाह और असम। सारी वेद नाएँ-वैधव्य का शौक और विधि का निर्मम प्रहार --सब उस प्रकाश की गहराई में विलीन हो गया है। प्रकाश पर वह जान देती है। उसका आनन्द, उसकी अभिलाषा, उसका ससार, उसका स्वर्ग, सब प्रकाश पर न्यौछावर है; पर यह मजाल नहीं कि प्रकाश कोई शरारत करे, और करुणा आँखें बन्द कर ले। नहीं, वह जमुके चरित्र की बड़ी कठोरता से देख-भाल करती है। वह प्रकाश की माँ ही नहीं, माँ-बाप दोनों है। उसके पुत्र-स्नेह में माता की ममता के साथ पिता की कठोरत्ता भी मिली हुई है। पति के अन्तिम शब्द अभी तक उसके कार्यों में गूंज रहे हैं। वह आत्मोल्लास जो उनके चेहरे पर झलकने लगा था, वह गर्नमय लालो जो उनकी आँखों में छा गई थी, अभी तक उसकी आँखों में फिर रही है। निरन्तर पतिचिंतन ने आदित्य छौ उसकी आँखें में प्रत्यक्ष कर दिया है। वह सदैव उनकी उपस्थिति का अनुभव किया करता है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि आदित्य की आत्मा सदैव उसकी रक्षा करती रहती है। उसकी यही हार्दिक अभिलाषा है कि प्रकाश जवान होकर पिता का पदनामी हो।

सध्या हो गई थी। एक भिखारिन द्वार पर आकर भोख माँगने लगा। करुण उस समस गउओं को सानो दे रही थी। प्रकाश बाहर खेल रहा था। बालक ही तो ! शरारत सूझी। घर में गया, और कटोरे में थोड़ा-सा भूसा लेकर बाहर निकला।