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माँ


उस इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, सारी चपलता, सारी सरसता बिदा हो गई। करुणा उसके मनोभाव समझती थी, और उसके शोक छौ भुलाने की चेष्टा करती थी ; पर रूठे देवता प्रसन्न न होते थे !

आखिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा---बेटा, अगर तुमने विलायत जाने की ठान ही ली है, तो चले जाओ। मैं मन न गी। सुके खेद है कि मैंने तुम्हें रोका। अगर मैं जानती कि तुम्हें इतना आघात पहुंचे, तो थी न रोती। मैंने तो केवल इस विचार से रोका था कि तुम्हें जाति-सेवा में अन्न देणार तुम्हारे बाबूजी की आत्मा प्रसन्न होगी। उन्होंने चलते समय यही वसीयत की थी।

प्रकाश ने रुखाई से जवाब दिया--अब क्या जाऊँगा। इलमारी से लिख चुका। मेरे लिए कोई अड़े तक पैठा थोड़े ही होगा। झोई दूसरा स्ला जुन रिय} गया होगा।

और फिर करना ही क्या है। ये आपकी मर्जी के श्चि पद की अनला फिरू, तो वह सही।

करुणा का गर्व चूर-चूर हो गया । इस अनुमति से उसने ना वा वास ना चाहा था; पर सफल न हुई। पोलो---अभी कोई न चुना गया है। दिल दो, में जाने को तैयार हैं।

प्रकाश ने झुंझलाकर कहा---अन कुछ नहीं हो सकता। लोग जो डायेंगे। मैंने तय कर लिया है कि जीवन को आपकी इच्छा के अनकूल धागा ।

करुणा---तुमने अगर शुद्ध मन से यह इरादा किया होता, तो यों न रहते। तुम मुझसे सत्याग्रह कर रहे हो ; अगर मन को दबार, मुझे अपनी राह छ। समझकर, मने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या। मैं तो ज६ जनतो कि तुम्हारे मन में आप-ही-आप सेवा भाव उत्पन्न होता। तुम्न आज ही रजिष्ट्रार साह को पत्र लिख दो।

प्रकाश---अन नहीं लिख सती।

‘तो इसी शोक में तने बैठे रहोगे ?’

‘लाचारी हैं।'

करुणा ने और कुछ न कहा। ज़र। देर में प्रकाश ने देखा कि वह ही जा रही है; मगर वह कुछ बोल नहीं। करुणा के लिए बाहर आना-जाना कोई असारण