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मानसरोवर


कौन गॅवायेगा ? हा ! सारा किया-धरा मिट्टी में मिल गया ? सैकड़ों रूपये पर पानी फिर गया ! बदनामी हुई वह अलग। .

मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ था। चारों लड़के आँगन में लज्जिर खड़े थे। एक दूसरे को इलज़ाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवनियों पर बिगड़ रही थीं। देवरानियों सारा दोष कुमुद के सिर डालतो थी। कुमु खड़ी रो रही थी। उसी वक फूलमती झल्लाई हुई आकर बोली-मुंह में कालिख लगो कि नहीं ? या अभी कुछ कसर बाकी है ? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चिल्ल-भर पानी में ! शहर में कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहे !

किसी लड़के ने जवाब न दिया।

फूलमती और भी प्रचण्ड होकर बोलो --- तुम लोगों को क्या। किसी को शर्म- हया तो है नहीं। आत्मा तो उनको रो रही है, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगो घर की मरजाद बनाने में खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यो कलङ्कित किया। सारे शहर मैं थुड़ो-थुई हो रही है। अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आयेगा नहीं।

कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुमलाकर बोला --- अच्छा, अब चुप रहो अम्मा भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भय कर भूल हुई , लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों को हलाल दर डालोगी ? सभी से भूलें होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी को जान तो नहीं मारी जातो?

बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी-हम क्या जानते थे कि बोबो (कुमुद) से इतना- सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालती। टोकरी उटाकर कढ़ाव में डाल दी। इसमें हमारा क्या दोष !

कामतानाथ ने पत्नी को डाँटा --- इसमें न कुमुद का कसूर है, न तुम्हाग, न मेरा। संयोग को बात है। वदनामी भाग में लिखौ यो वह हुई, इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जात ! टोकरे-के-टोकरे उँडेल दिये जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना हो ही जाती है। पर इसमें कैसी जग-ईसाई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक छिड़कती हो।

फूलमती ने दांत पीसकर कहा --- शरमाते तो नहीं, उलटे और बेहयाई की बातें करते हो।