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बेटोंवाली विधवा


उमा ने कामतानाथ से कहा --- सुनते हैं भाई साहब ; इसको आते हैं दयानाथ बोल उठे तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है ? यह अपने रुयै दे रहे हैं, खर्च कीजिए। मुरारी पण्डित से हमारा कोई वैर नहीं है। मुझे तो इस बात से खुश हो रही है कि भला हममें कोई तो त्याग करने योग्य है। इन्हें तत्काल रुपये की ज़रूरत नहीं है। सरकार से वज़ोफा पाते ही हैं। पास होने पर कहीं-न-कहीं जगह मिल जायगी। हम लोगों की छालते तो ऐसी नहीं है ।

कामतानाथ ने दूरदर्शिता का परिचय दिया-नुक्क पान की एक ही कही। होममें से एक को छष्ट हो तो क्या और लोग बैठे देखेंगे ? यह अभी लड़के हैं, इन्हें क्या मालूम कि समय पर एक रुपया एक लाख का काम चरता है। कौन जानता है, कल इन्हें विलायत जार पढ़ने के सरकारी लिए वफा मिल जाए, या सिविल सर्विस में आ जायें। उस वक्त सफ़र तंरिय में चार-पाँच हज़र लग जायँगे। तर किसके सामने हाथ फैशते फिरेंगे ? मैं यह नहीं चाहता कि दहेज़ के पोछे इन जिन्दगी नष्ट हो जाय।

इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ लिया। सकुचाता हुआ बोला ---- हाँ, यदि ऐसा हुआ तो बेशक मुझे रुपये की ज़रूरत होगी।

‘क्या ऐसा होना असम्भव है ?’

असम्भव तो मैं नहीं समझा ; लेकिन झठिन अवश्य है। वज्रोफे उन्हें मिलते हैं, जिनके पास सिफारिशें होती हैं, मुझ कौन पूछता है।'

अभी-अभी सिफारिशें धरी रह जाती हैं और बिना सिफारिश वाले बाजी मार ले जाते हैं।

तो आप जैसा उचित समझे। मुझे य तक मजूर है कि चाहे मैं विलायत में जाऊ ; पर कुमुद अच्छे घर जाय।

कामतानाथ ने निछा भाव से कहा --- अच्छा घर दहेज़ देने हों से नहीं मिलता भैया। जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा, यह नसो का खेल है। मैं तो चाहता हूँ छि मुरारीलाल को जवाब दे दिया जाये और कोई ऐपु चर खोज जाय, जो थोड़े में ज़ी हो जाये। इस विवाह में मैं एक हज़ार से प्रादा नहों खर्च कर सकता। पण्डित दोनदयाल कैसे हैं ?