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कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्त्व निकले, चह सर्वमान्य हो, और उस कुछ बारीको हो। यह एक साधारण नियम है कि मैं उसी बात में आनन्द आता है, जिससे हमारा कुछ सम्बन्ध हो। जुवा खेलनेवालों को जो उन्माद और उल्लास होता है, वह दर्श को छदादि न हो सकता। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं कि पाठक अपने छौ उसके स्थान पर समझ लेता है, तभी उसे कहानी में आनन्द प्राप्त होता है। अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक में यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दो, तो वह अपने लद्देश्य में असफल है।

पाठकों से यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन थोड़े ही दिनों में हिन्दो शल्पकला ने कितनी प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है। पहले हमारे सामने केवल बँगली कहानियों का नमूना था। अब हम सखार के सभी प्रमुख गल्प-लेखकों की रचनाएँ पढ़ते हैं, उन पर विचार और वस्त्र करते हैं, उनके गुण-दोष निकालते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। अव हिन्दी-गलप-लेखकों में विषय और दृष्टकोण और शैली का अल-अलग झिाल होने लगा है, कहानी इन के बहुत निकट आ गई है। उचक्कों जोन अब उतनी लरकी-चौड़ी नहीं हैं। इसमें कई रस, इई चरित्र और छई घटनाओं के लिए स्थान नहीं रहा। य? वह केवल एक प्रसंग का, आत्मा की एक झलक का सजीव, रूप चित्रण है। इस ए तथ्यता ने उसमें प्रभाव, आकस्मिकता और तीव्रता भर दी है। अब उसमें व्याख्या का अश कम, सवेदना का अंश अधिक रहता है। उसकी शैली भी अब प्रवाहमी हो गई है। लेखक को जो कुछ बृहना है, वह कम-से-कम शब्दों में छह डालना चाहता है। वह अपने चरित्र के मनोभावों की व्याख्या करने नहीं बैठता, केवल उनकी तरफ़ इशारा कर देता है। कभीकभी तो संभाषणों में एक-दो शब्झ से हो म निकाल लेता है। ऐसे कितने ही अवसर होते हैं, जब पात्र के मुंह से एछ शब्द सुनकर हम उसके मनोभावों का पूरा अनुमाई कर लेते हैं। पूरे वाक्य को ज़रूरत ही नहीं रहती। अब हम इहानी का मूल्य उसके घटना-विन्यास से नहीं लगाते। हम चाहते हैं,-पात्रों को मनोगति स्वय घटनाओं की सृष्टि करै। घटनाओं को स्वतन्त्र कोई महत्व ही नहीं रहा। उनका महत् केवल पात्रों के मनोभार्थों को व्यक्त करने की दृष्टि से ही है। उसी तरह जैसे शालिग्राम स्वतंत्र रूप से केवल पत्थर का एक गोल टुकड़ा है; लेकिन उपासक की श्रद्धा से प्रतिष्ठित होकर देवता बन जाता है। खुलासा यह कि गल्प का आधार अब घटना