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विद्रोही


विचार जी में आया, चलकर तारा से मिल लूँ, मगर फिर वही शङ्का हुई कहीं वह मुखातीव न हुई तो ? विमल बाबू इस दशा मे भी मुझसे उतना ही स्नेह दिखायेंगे, जितना अब तक दिखाते आये हैं, इसका मैं निश्चय न कर सका। पहले मैं एक धनी परिवार का दीपक था, अब एक अनाथ युवक, जिसे मंजूरी के सिवा और कोई अव- लम्ब नहीं था।

देहरादून मे अगर कुछ दिन मैं शांति से रहता, तो सम्भव था, मेरा आहत-हृदय संभव जाता और मैं विमल बाबू को मना लेता , लेकिन वहाँ पहुँचे एक सप्ताह भी न हुआ था कि मुझे तारा का पत्र मिल गया । पते की लिपि देखकर मेरे हाथ कांपने लगे। समस्त देह में कपन सा होने लगा। शायद शेर को सामने देखकर भी मैं इतना भयभीत न होता। हिम्मत ही न पड़ती थी कि उसे खोलें । यही लिखावट थी, वही मोतियो को लड़ी, जिसे देखकर मेरे लोचन तृप्त-से हो जाते थे, जिसे चूमता था और हृदय से लगाता था, वही काले अक्षर आज नागिनो से भी ज्यादा डरावने मालूम होते थे। अनुमान कर रहा था कि उसने क्या लिखा होगा , पर अनुमान की दूरतम दौड़ भी पत्र के विषय तक न पहुँच सकी। आखिर एक बार कलेजा मजबूत करके मैंने पत्र खोल डाला। देखते ही आँखों में अंधेरा छा गया। मालूम हुआ, किसी ने सीसा पिघलाकर पिला दिया । तारा का विवाह तय हो गया था। शादी होने में कुल चौबीस घंटे बाकी थे। उसने मुझसे अपनी भूलो के लिए क्षमा मांगी और विनती को थी कि मुझे भुला मत देना। पत्र का अंतिम वाक्य पढकर मेरी आँखो से आंसुओं को झड़ी लग गई। लिखा था- यह अंतिम प्यार लो। अब आज से मेरे ओर तुम्हारे बीच मे केवल मैत्री का नाता है । अगर कुछ और समझूँ तो वह अपने पति के साथ अन्याय होगा, जिसे शायद तुम सबसे ज्यादा नापसंद करोगे। बस, इससे अधिक और न लिखूंगी। बहुत अच्छा हुआ कि तुम यहाँ से चले गये। तुम यहाँ रहते, तो तुम्हे भो दुःख होता और मुझे भी , मगर प्यारे ! अपनी इस अभा- गिनी तारा को भूल न जाना । तुमसे यही अतिम निवेदन है।

मैं पत्र को हाथ में लिये-लिये लेट गया। मालूम होता था, छाती फट जायगी । भगवन् ! अब क्या करूँ । जब तक मैं लखनऊ पहुँचूँगा, बारात द्वार पर आ चुकी होगी। यह निश्चय था , लेकिन तारा के अन्तिम दर्शन करने की प्रबल इच्छा को मैं किसी तरह न रोक सकता था। यही अब जीवन की अंतिम लालसा थी।