पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३४
मानसरोवर


से निकलकर उसने भय के क्षेत्र में प्रवेश किया । शत्रुओं ने उसे समूल नष्ट करने की आयोजना करनी शुरू की । दूर-दूर के कवीलो से मदद मांगी जाने लगी। इस्लाम में इतनी शक्ति न थी कि शस्त्र-बल से विरोधियो को दवा सके । हज़रत मुहम्मद ने मक्का छोड़कर कहीं और चले जाने का निश्चय किया । मक्के में मुस्लिमों के घर सारे शहर में बिखरे हुए थे। एक की मदद को दूसरे मुसलमान न पहुंच सकते थे। 'हजरत मुहम्मद किसी ऐसी जगह आबाद होना चाहते थे, जहाँ सब मिले हुए रहें, और शत्रुओं की संघटित शक्ति का प्रतीकार कर सके । अंत में उन्होंने मदीने को पसंद किया और अपने समस्त अनुयायियों को सूचना दे दी। भक्तजन उनके साथ हुए और एक दिन मुस्लिमों ने मक्के से मदीने को प्रस्थान कर दिया । यही हिजरत थी।

मदीने मे पहुँचकर मुसलमानों में एक नयी शक्ति, नयो स्फूर्ति का उदय हुआ। वे निश्शंक होकर अपने धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की जरूरत न थी।

आत्मविश्वास बढा। इधर भी विधर्मियों का स्वागत करने की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों पक्ष सेना इकट्ठी करने लगे। विधर्मियों ने संकल्प किया कि संसार से इस्लाम का नाम ही मिटा देंगे। इरलाम ने भी उनके दाँत खट्टे करने का निश्चय किया।

एक दिन अबुलआस ने आकर पत्नी से कहा- जैनब, हमारे नेताओं ने इस्लाम पर जिहाद करने की घोषणा कर दी है।

जैनब ने घबड़ाकर कहा- अब तो वे लोग यहाँ से चले गये। फिर इस जिहाद की क्या जरूरत ?

अवुलआस-मक्के से चले गये, अरब से तो नहीं चले गये। उन लोगो की ज्यादतियाँ बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं है। जिहाद में मेरा शरीक होना ज़रूरी है।

जैनब-अगर तुम्हारा दिल तुम्हे मजबूर करता है, तो शौक से जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।

आस--मेरे साथ ?

जैनब-हाँ, वहाँ आहत मुसलमानो की सेवा-शुश्रूपा करूंगी।

आस-शौक से चलो।