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कुसुम

उल्लास है, मेरी व्याकुलता में दैन्य और परवशता। उसके उपालम्भ में अधिकार और ममता है, मेरे उपालम्भ में भग्नता और रुदने ।

पत्र लम्बा हुआ जाता है और दिल का बोझ हलका नहीं होता । भयंकर गरम पड़ रही हैं। दादा मुझे मसूरी ले जाने का विचार कर रहे हैं। मेरी दुर्बलता से उन्हें ‘टी० बी०' का सन्देह हो रहा है। वह नहीं जानते कि मेरे लिए मसूरी नहीं, स्वर्ग भी कालकोठरी हैं।

अभागिनी,

--कुसुम

चौथा पत्र

मेरे पत्थर के देवता, कल मसूरी से लौट आई । लोग कहते हैं, बड़ा स्वास्थ्यवर्द्धक और रमणीक स्थान है, होगा । मैं तो एक दिन भी कमरे से नहीं निकली । भग्न हृदयों के लिए संसार सूना है ।

मैंने एक रात बड़े मज़े का सपना देखा । बतलाऊँ , पर क्या फायदा । न-जाने क्यों अब भी मौत से डरती हैं। आशा का कच्चा धागा मुझे अब भी जीवन से बांधे हुए हैं। जीवन-उद्यान के द्वार पर जाकर बिना सैर किये लौट जाना कितना हसरतनाक है। अन्दर क्या सुषमा है, क्या आनन्द है। मेरे लिए वह द्वार ही बन्द है ! कितनी अभिलाषाओं से विहार का आनन्द उठाने चली थी --- कितनी तैयारियों से—पर मेरे पहुँचते ही द्वार बन्द हो गया है ।

अच्छा बतलाओं, मैं मर जाऊँगी, तो मेरी लाश पर आँसू की दो बूंदै गिराओगे ? जिसकी ज़िन्दगी-भर की जिम्मेदारी ली थी, जिसकी सदैव के लिए बाँह पकड़ी थी, वया उसके साथ इतनी उदारता भी न करोगे ? मरनेवालों के अपराध सभी क्षमा कर दिया करते हैं। तुम भी क्षमा कर देना। आकर मेरे शव को अपने हाथों से नहलाना, अपने हाथ से सौहार के सिन्दूर लगाना, अपने हाथ से सोहाग की चूड़ियाँ पहनाना, अपने हाथ से मेरे मुंह में गंगाल डालना, दो-चार पग कन्धा दे देना, बस मेरी आत्मा सन्तुष्ट हो जायगो और तुम्हें आशीर्वाद देगी । मैं वचन देती हैं कि मालिक के दरबार में तुम्हारा यश गाऊँगी । क्या यह भी महँगा सौदा हैं ? इतने से शिवाचार से तुम अपनी सारी ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जाते हों । आह ! मुझे विश्वास होता कि तुम इतना शिष्टाचार करोगे, तो मैं कितनी खुशी से‌