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मानसरोवर

लेकिन वह दुष्ट बराबर इन्कार किये जाता है। आप जानते हैं प्रेम असाध्य रोग है। आपको भी शायद इसका कुछ-न-कुछ अनुभव हो। बस, यह समझ लीजिए कि जीवन निरानन्द हो रहा है । नींद और आराम हराम है। भोजन से अरुचि हो गई है। अगर कुछ दिन यही हाल रहा, तो समझ लीजिए कि मेरी जान पर बन आयगी । सोते-जागते वही मूर्ति आँखो के सामने नाचती रहती है । मन को समझा- कर हार गया और अब विवश होकर मैंने कूटनीति से काम लेने का निश्चय किया है। प्रेम और समर में सब कुछ क्षम्य है। मै चाहता हूँ, आप थोड़े-से मातबर आदमियों को लेकर जाये और उस रमणी को किसी तरह ले आयें। खुशी से आये खुशी से, बल से आये बल से, इसकी चिन्ता नहीं। मैं अपने राज्य का मालिक हूँ। इसमें जिस वस्तु पर मेरी इच्छा हो, उस पर किसी दूसरे व्यक्ति का नैतिक या समाजिक स्वत्व नहीं हो सकता। यह समझ लीजिए कि आप ही मेरे प्राणो की रक्षा कर सकते हैं। कोई दूसरा ऐसा आदमी नहीं है, जो इस काम को इतने सुचारू रूप से पूरा कर दिखाये। आपने राज्य की बड़ी-बड़ी सेवाएँ की हैं ! यह उस यज्ञ की पूर्णाहुति होगी और आप जन्म-जन्मान्तर तक राजवंश के इटदेव समझे जायेंगे।

मि० मेहता का मरा हुआ आत्म-गौरव एकाएक सचेत हो गया। जो रक्त चिर काल से प्रवाह-शून्य हो गया था, उममे सहसा उद्रेक हो उठा। त्योरियां चढाकर बोले तो आप चाहते हैं, मैं उसे किडनैप करूं?

राजा साहब ने उनके तेवर देखकर आग पर पानी डालते हुए कहा-कदापि नहीं मि० मेहता, आप मेरे साथ घोर अन्याय कर रहे है। मैं आपको अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज रहा हूँ। कार्य-सिद्धि के लिए आप जिस नीति से चाहे काम ले सकते हैं । आपको पुरा अधिकार है।

मि. मेहता ने और भी उत्तेजित होकर कहा- मुझसे ऐसा पाजीपन नहीं हो सक्ता।

राजा साहब की आंखों से चिनगारियाँ निक्लने लगी।

'अपने स्वामी का आज्ञा-पालन करना पाजीपन है ?'

'जो आज्ञा नीति और धर्म के विरुद्ध हो, उसका पालन करना बेशक पाजी-

'किसी स्त्री से विवाह का प्रस्ताव करना नीति और धर्म के विरुद्ध है ?'