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मानसरोवर

दोनों कुछ दूर फिर चुपचाप चले गये। तब कृष्णचन्द्र ने पूछा - तुम्हारी अम्माँ मुझसे कैसी सलाह करेगी?

विन्नी का ध्यान जैसे टूट गया।

मैं क्या जानूँ, कैसी सलाह करेंगी। मैं जानती कि तुम्हारे दादा आये हैं, तो न जाती। मन में कहते होंगे, इतनी बड़ी लड़की, अकेली मारी-मारी फिरती है।

कृष्णचन्द्र कहकहा मारकर बोला - हाँ, कहते तो होंगे। मैं जाकर और जड़ दूंगा। बिन्नी बिगड़ गई। 'तुम क्या जड़ दोगे? बताओ मैं कहाँ घूमती हूँ? तुम्हारे घर के सिवा मैं और कहाँ जाती हूँ?'

'मेरे जी में जो आयेगा वह कहूंगा। नहीं तो मुझे बता दों, कैसी सलाह है।' तो मैंने कब कहा था कि मैं नहीं बताऊँगी। कल हमारे मिल में फिर हड़ताल होने वाली है। हमारा मनीजर इतना निर्दयी है कि किसी को पाँच मिनट की भी देर हो जाय, तो आधे दिन की तलब काट लेता है और दस मिनट देर हो जाय, तो दिन-भर की मजूरी गायब। कई बार सभी ने जाकर उससे कहा-सुना, मगर मानता ही नहीं। तुम हो तो जरा-से, पर अम्माँ को न-जाने तुम्हारे ऊपर क्यों इतना विश्वास है, और मजूर लोग भी तुम्हारे ऊपर बड़ा भरोसा रखते हैं। सबकी सलाह है कि तुम एक बार मनीजर के पास जाकर दो टूक बाते कर लो। हाँ या नहीं, अगर वह अपनी बात पर अड़ा रहे, तो फिर हम भी हड़ताल करेंगे।

कृष्णचन्द्र विचारों में मग्न था। कुछ न बोला। विन्नी ने फिर उद्दण्ड-भाव से कहा - यह कड़ाई इसी लिए तो है, कि मनीजर जानता है, हम बेबस हैं और हमारे लिए और कहीं टिकाना नहीं हैं। तो हमें भी दिखा देना है कि हम चाहे भूखे मरेंगे; मगर अन्याय न सहेंगे।

कृष्णचन्द्र ने कहा - उपद्रव हो गया, तो गोलियाँ चलेगी। ‘तो चलने दो। हमारे दादा मर गये तो क्या हम लोग जिये नहीं?' दोनों घर पहुंचे, तो वहाँ द्वार पर बहुत-से मजूर जमा थे और इसी विषय पर बातें हो रही थीं। कृष्णचन्द्र को देखते ही सभी ने चिल्लाकर कहा - लो, भैया आ गये।