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मानसरोवर


तीसरे ही दिन काकी चल बसी । रात-दिन तुम्हे गालियाँ देती थी। मरते-मरते तुम्हें गरियाती ही रही। तीसरे दिन आये, तो मरी पड़ी थी। तुम इतने दिन कहाँ रहे ?

नेउर ने कोई जवाब न दिया। केवल शून्य, निराश, करुण, आहत नेत्रों से लोगों को ओर देखता रहा, मानो उसकी वाणी हर गई है। उस दिन से किसीने उसे बोलते या रोते या हॅसते नहीं देखा

गाँव से आध मोल पर पक्को सड़क है । अच्छी आमद-रफ्त है । नेउर बड़े सबेरे जाकर सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ जाता है। किसीसे कुछ मांगता नहीं; 'पर राहगीर कुछ न कुछ दे ही देते हैं-चवेना, अनाज, पैसे ! संध्या समय वह अपनी झोपड़ी में आ जाता है, चिराग जलाता है, भोजन बनाता है, खाता है और उसी खाट पर पड़ रहता है। उसके जीवन मे जो एक सचालक-शक्ति थी, वह लुप्त हो गई है। वह अब केवल जीवधारी है। कितनी गहरी मनोव्यथा है। गांव में प्लेग आया। लोग घर छोड़ छोड़कर भागने लगे । नेउर को अब किसीको परवा न थी। न किसीको उससे भय था, न प्रेम। सारा गाँव भाग गया, नेउर ने अपनी झोपड़ी न छोड़ी, तब होली आई, सबने खुशियां मनाई, नेउर अपनी झोपड़ी से न 'निकला; और आज भी वह उसी पेड़ के नीचे, सड़क के किनारे, उसी तरह मौन बैठा हुआ नजर आता है, निश्चेष्ट, निर्जीव !



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