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गृह-नीति

जब माँ बेटे से बहु की शिकायतो का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खत्म होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन भर की थकान के कारण कुछ झुंझलाकर माँ से कहता है तो आखिर तुम मुझे क्या करने को कहती हो अम्माँ ? मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना तो नहीं है। यह तो तुम्हारा काम है ! तुम उसे डाँटो, मारो, जो सज़ा चाहे दो। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती है कि तुम्हारे प्रयत्न से वह आदमी वन जाय । मुझसे मत कहो कि उसे सलीका नहीं है, तमीज नहीं है, बे-अदव है। उसे डाँटकर सिखाओ।

माँ---वाह, मुंह से बात निकालने नहीं देती, डॉ तो मुझे ही नोच खाय । उसके सामने आबरू बचाती फिरती हूँ कि किसीके मुंह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बैठे।

बेटा-तो फिर इसमें मेरी क्या खता है, मैं तो उसे सिखा नहीं देता कि तुमसे बे-अदबी करे!

मां-तो और कौन सिखाता है ?

बेटा-तुम तो अधेर करती हो अम्मां!

मां-अधेर नहीं करती, सत्य कहती हूँ। तुम्हारी ही शह पाकर उसका दिमाग चढ गया है। जब वह तुम्हारे पास आकर टिसवे वहाने लगती है, तो कभी तुमने उसे डाँटा, कभी समझाया कि तुझे अम्माँ का अदव करना चाहिए ? तुम तो खुद उसके गुलाम हो गये हो। वह भी समझती है, मेरा पति कमाता है, फिर मैं क्यों न रानी बनूं, क्यों किसीसे दबूं। मर्द जब तक शह न दे, औरत का इतना गुर्दा हो ही नहीं सकता।

बेटा-तो क्या मैं उससे कह दूं कि मैं कुछ नहीं कमाता, बिलकुल निखट्टू हूँ?