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गृह-नीति


घरों की लड़कियां गरीबों के घर आती हैं और घर की हालत देखकर वैसा ही बर्ताव करती हैं। यह नहीं कि बैठी अपने भाग्य को कोसा करें । इस छोकरी ने हमारे घर को अपना समझा ही नहीं।

बेटा-जब तुम समझने भी दो। जिस घर में धुङ्गकियों, गालियो और कटु- ताओ के सिवा और कुछ न मिले, उसे अपना घर कौन समझे । घर तो वह है, जहाँ स्नेह और प्यार मिले। कोई लड़की डोली से उतरते ही सास को अपनी मां नहीं समभाती। माँ तभी समझेगी, जब सास पहले उसके साथ माँ का बर्ताव करे, बल्कि अपनी लड़की से ज्यादा प्रिय समझे।

माँ-- अच्छा, अब चुप रहो। जी न जलाओ । यह ज़माना ही ऐसा है कि लड़कों ने स्त्री का मुंह देखा और उसके गुलाम हुए। ये सब न-जाने कौन-सा मन्तर सीखकर आती हैं। यह वह बेटों के लच्छन है-कि पहर दिन चढे सोकर उठे । ऐसी कुलच्छनी बहू का तो मुँह न देखे।

बेटा--मैं भी तो देर में सोकर उठता हूँ, अम्मा । मुझे तो तुमने कभी नहीं कोसा।

माँ-तुम हर बात में उससे अपनी बरावरी करते हो ।

बेटा-जो उसके साथ घोर अन्याय है, क्योंकि जब तक वह इस घर को अपना नहीं समझती, तब तक उसको हैसियत मेहमान की है, और मेहमान की हम खातिर करते हैं, उसके ऐव नहीं देखते ।

मां--ईश्वर न करे किसीको ऐसी बहू मिले ।

बेटा-तो वह तुम्हारे घर में रह चुकी ।

मां-क्या संसार में औरतो की कमी है ?

बेटा-औरतों की कमी तो नहीं ; मगर देवियों को कमी ज़रूर है।

मां-नौज ऐसी औरत । सोने लगती है, तो बच्चा चाहे रोते-रोते बेदम हो जाय, मिनकती तक नहीं । फूल सा बचा लेकर मैके गई थी, तीन महीने में लौटी, तो बच्चा आधा भी नहीं है।

बेटा-तो क्या मैं यह मान लूँ कि तुम्हें उसके लड़के से जितना प्रेम है, उतना उसे नहीं है ? यह तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। और मान लो, वह निरमोहिन ही है, तो यह उसका दोष है। तुम क्यों उसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेती हो ?