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मानसरोवर

माँ-हाय बेटा, तुम अपनी स्त्री के सामने मेरा अपमान कर रहे हो। इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया था ? क्यों मेरी छाती नहीं फट जाती ? [ वह आँसू पोंछती, आपे से बाहर, कमरे से निकल जाती है । स्त्री-पुरुष दोनों कौतुक-भरी आँखों से उसे देखते हैं, जो बहुत जल्द हमदर्दी में बदल जाती है।]

पति--मां का हृदय •••••

स्त्री-मां का हृदय नहीं, स्त्री का हृदय ••••

पति-अर्थात् ?

स्त्री-जो अन्त तक पुरुष का सहारा चाहता है, स्नेह चाहता है, और उस पर किसी दूसरी स्त्री का असर देखकर ईर्ष्या से जल उठता है ?

पति-क्या पगली की-सी बातें करती हो ?

स्त्री - यथार्थ कहती हूँ।

पति-तुम्हारा दृष्टिकोण बिलकुल गलत है और इसका तजरबा तुम्हें तब होगा, जब तुम खुद सास होगी।

स्त्री-मुझे सास बनना ही नहीं है । लड़का अपने हाथ-पाँव का हो जाय, व्याह करे और अपना घर संभाले। मुझे बहू से क्या सरोकार ।

पति-तुम्हे यह अरमान बिलकुल नहीं है कि तुम्हारा लड़का योग्य हो, तुम्हारी बहू लक्ष्मी हो, और दोनों का जीवन सुख से कटे ?

स्त्री-क्या मैं माँ नहीं हूँ?

पति-माँ और सास मे क्या कोई अन्तर है ?

स्त्री-उतना ही जितना ज़मीन और आसमान में है। मां प्यार करती हैं, सास शासन करती है। कितनी ही दयालु, सहनशील सतगुणी स्त्री हो, सास बनते ही मानो ब्याई हुई गाय हो जाती है । जिसे पुत्र से जितना ही ज्यादा प्रेम है, वह बहू पर उतनी ही निर्दयता से शासन करती है। मुझे भी अपने ऊपर विश्वास नहीं है । अधिकार पाकर किसे मद नहीं हो जाता। मैंने तय कर लिया है, सास बनूंगी ही नहीं । औरत की गुलामी सासो के बल पर कायम है। जिस दिन सासें न रहेगी, औरत की गुलामी का अन्त हो जायगा ।

पति-मेरा खयाल है, तुम ज़रा भी सहज बुद्धि से काम लो, तो तुम अम्माँ पर ही शासन कर सकती हो । तुमने हमारी बातें कुछ सुनी ?