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गृह-नीति

एकवारगी नहीं बदल सकते। जिन रुढ़ियों और परम्पराओं में उनका जीवन बीता है, उन्हें तुरन्त त्याग देना उनके लिए कठिन है। वह क्या, कोई भी नहीं छोड़ सकता। वह तो फिर भी बहुत उदार हैं। तुम अभी महाराज मत रखो। खामख्वाह जोरबार क्यो होगे, जब तरक्की हो जाय, तो महाराज रख लेना। अभी मैं पका लिया करूँगी। तीन-चार प्राणियों का खाना ही क्या। मेरी ज़ात से कुछ तो अम्मा को आराम मिले । मैं जानती हूँ सब कुछ , लेकिन कोई रोब जमाना चाहे, तो मुझसे बुरा कोई नहीं।

पति-मगर यह तो मुझे बुरा लगेगा, कि तुम रात को अम्माँ के पाँव दबाने बैठो।

स्त्री--बुरा लगने की कौन बात है, जब उन्हें मेरा इतना खयाल है, तो मुझे भी उनका लिहाज करना ही चाहिए। जिस दिन मैं उनके पाँव दवाने बैठूगी, वह मुझ पर प्राण देने लगेगी । आखिर बहू-बेटे का कुछ सुख उन्हे भी तो हो । बङो की सेवा करने मे हेठी नहीं होती। बुरा जब लगता है, जब वह शासन करते हैं, और अम्माँ मुझसे पांव दवायेंगी थोड़े ही । संत का यश मिलेगा !

पति--अब तो अम्माँ को तुम्हारी फजूलखर्ची भी बुरी नहीं लगती। कहती थी, रुपये-पैसे बहू के हाथ मे दे दिया करो।

स्त्री--चिढकर तो नहीं कहती थी ?

पति-नहीं-नहीं, प्रेम से कह रही थीं। उन्हें अब भय हो रहा है, कि उन के हाथ मे पैसे रहने से तुम्हे असुविधा होती होगी। तुम बार-बार उनसे माँगते लजाती भी होगी और डरती भी होगी और तुम्हे अपनी ज़रूरतों को रोकना पड़ता होगा।

स्त्री- ना भैया, मैं यह जजाल अभी अपने सिर न लूंगो। तुम्हारी थोड़ी-सी तो आमदनी है, कहीं जल्दी से खर्च हो जाय, तो महीना कटना मुश्किल हो जाय । थोड़े में निर्वाह करने की विद्या उन्हीं को आती है। मेरो ऐसो जरूरतें ही क्या है। मैं तो केवल अम्माजी को चिढाने के लिए उनसे बार-बार रुपये माँगती थी । मेरे पास तो खुद सौ-पचास रुपये पड़े रहते हैं। बाबूजी का पत्र आता है, तो उसमें दस-बीस के नोट जरूर होते है , लेकिन अब मुझे हाथ रोकना पड़ेगा । आखिर बाबूजी कब तक देते चले जायेंगे और यह कौन-सी अच्छी बात है, कि मैं हमेशा उनपर टैक्स लगाती रहूँ।