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लाटरी

माताजी ने केवल इतना कहा-सभी ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें। किसी के हाथ से थोड़े छीन लायेंगे।

रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर वोला - चलो होटल से कुछ खा आये। घर में तो चूल्हा नहीं जला।

मैंने पूछा--तुम डाकखाने से आये, तो बहुत प्रसन्न क्यों थे ?

उसने कहा-जब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हंँसी आई। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दुस्तान मे इसके हज़ार गुने से कम न होंगे और दुनिया मे तो लाख गुने से भी ज़्यादा हो जायेंगे। और मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया, और मुझे हॅसी आई। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे- और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि..

मैं भी हँसा-हाँ, बात तो यथार्थ मे यही है, और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे, मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं ?

विक्रम मुसकिराकर बोला-अब क्या करोगे पूछकर । पर्दा ढका रहने दो।


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