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शूद्रा


अब उन्हें घर का सारा काम आप ही करना पड़ेगा। न जाने बकरियो को चराने ले. जाती हैं या नहीं । बिचारी दिन-भर मे में करती होंगी । मैं अपनी बकरियों के लिए: महीने-महीने रुपए भेजूंगी । जब कलकत्ते से लौटूँगी तब सबके लिए साड़ियाँ लाऊँगी। तब मैं इस तरह थोड़े ही लौटूँगी । मेरे साथ बहुत-सा असबाव होगा। सबके लिए कोई न कोई सौगात लाऊँगी। तब तक तो बहुत सी बकरियों हो जायेगी।

यही सुख-स्वप्न देखते देखते गौरा ने सारा रास्ता काट दिया ? पगली क्या जानती थी कि मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कुछ और। क्या जानती थी कि बूढे ब्राह्मणों के भेष में भी पिशाच होते हैं । मन की मिठाई खाने मे मगन थी।

( ५ )

तीसरे दिन गाड़ी कलकत्ते पहुँची । गौरा की छाती धड-धड़ करने लगी। वह यहीं कहीं खड़े होंगे । अब आते ही होंगे। यह सोचकर उसने घूंघट निकाल लिया और सँभल बैठी। मगर मॅगरू वहाँ न दिखाई दिया। बूढा ब्राह्मण बोला-मॅगरू तो यहाँ नहीं दिखाई देता, मैं चारों ओर छान आया । शायद किसी काम में लग गया होगा, आने की छुट्टी न मिली होगी, मालूम भी तो न था कि हम लोग किस गाड़ी से आ रहे हैं। उनकी राह क्यों देखें, चलो, डेरे पर चलें।

दोनों गाड़ी पर बैठकर चले । गौरा कभी ताँगे पर न सवार हुई थी। उसे गर्व, हो रहा था। कि कितने ही बाबू लोग पैदल जा रहे हैं, मैं तांगे पर बैठी हूँ।

एक क्षण में गाड़ी मॅगरू के डेरे पर पहुंच गई । एक विशाल भवन था, अहाता साफ-सुथरा, सायवान मे फूलो के गमले रखे हुए थे। ऊपर चढने लगी। विस्मय, आनन्द और आशा से उसे अपनी सुधि ही न थी । सीढियों पर चढ़ते-चढते पैर दुखने लगे, यह सारा महल उनका है ! किराया बहुत देना पड़ता होगा। रुपये को तो वह कुछ समझते ही नहीं। उसका हृदय धड़क रहा था कि कहीं मॅगरू ऊपर से उतरते आ न रहे हों । सीढ़ी पर भेंट हो गई तो मैं क्या करूँगी। भगवान् करे वह पड़े. सोते हों, तब मैं जगाऊँ और वह मुझे देखते ही हड़बड़ाकर उठ बैठे। आखिर सीढियों का अन्त हुआ । ऊपर एक कमरे मे गौरा को ले जाकर ब्राह्मण देवता ने विठा दिया। यही मॅगरू का डेरा था। मगर मँगरू यहाँ भी नदारद ! कोठरी में केवल एक खाट- पड़ी हुई थी। एक किनारे दो-चार वरतन रखे हुए थे। यही उनकी कोठरी है। तो