पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/३१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मानसरोवर

गौरा ने कहा-यह दोनो बड़े सोहदे थे।

मँगरू-और मैं किसलिए कह रहा था कि यह जगह तुम्-जैसी स्त्रियों के रहने लायक नहीं है।

सहसा दाहिनी तरफ से एक अग्रेज घोड़ा दौड़ाता हुआ आ पहुँचा और मँगरू से बोला- वेल जमादार, यह दोनों औरतें हमारी कोठी में रहेगा। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं है।

मँगरू ने दोनों औरतों को अपने पीछे कर लिया और सामने खड़ा होकर बोला- साहब, यह दोनों हमारे घर की औरते हैं।

साहब ~ओ हो ! तुम झूठा आदमी। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं और तुम दो ले जायगा। ऐसा नहीं हो सकता । (गौरा की ओर इशारा करके ) इसको हमारे कोठी पर पहुंचा दो।

मँगरू ने सिर से पैर तक कांपते हुए कहा-~-ऐसा नहीं हो सकता ।

मगर साहब आगे बढ गया था, उसके कान मे बात न पहुंची। उसने हुक्म दे दिया था और उसकी तामील करना जमादार का काम था ।

शेष मार्ग निर्विन समाप्त हुआ । आगे मजूरों के रहने के मिट्टी के घर थे। द्वारों पर स्त्री, पुरुष जहां-तहाँ बैठे हुए थे। सभी इन दोनों स्त्रियों की ओर घूरते थे और आपस में इशारे करके हँसते थे। गौरा ने देखा उनमें छोटे-बड़े का लिहाज़ नहीं है, न किसीकी आँख में शर्म है।

एक भदैसल औरत ने हाथ पर चिलम पीते हुए अपनी पड़ेसिन से कहा-चार दिन की चांदनी, फिर अन्धेरा' पाख ।

दूसरी अपनी चोटी Dथती हुई वोली-कलोर हैं न !

( ८ )

मॅगरू दिन-भर द्वार पर बैठा रहा, मानो कोई किसान अपने मटर के खेत की रखवाली कर रहा हो। कोठरी मे दोनों स्त्रियाँ बैठी अपने नसीबों को रो रही थीं। इतनी ही देर में दोनों को यहां की दशा का परिचय हो गया था। दोनो भूखी-प्यासी बैठो थीं। यहाँ का रंग देखकर भूख-प्यास सब भाग गई थी।

रात के दस बजे होगे कि एक सिपाही ने आकर मैंगरू से कहा- चलो, तुम्हें जण्ट साहव बुला रहे हैं।