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मानसरोवर

मगरू-हजूर एक हजार हण्टर मार लें, लेकिन मेरे घर की औरत से न बोले।

एजेण्ट नशे में चूर था। हण्टर लेकर मैंगरू पर पिल पड़ा और लगा सड़ासड़ जमाने । दस-बारह कोडे तो मॅगरू ने धैर्य के साथ सहे, फिर हाय-हाय करने लगा। देह की साल फट गई थी और मास पर जब चाबुक पड़ता था तो बहुत ज़ब्त करने पर भी कण्ठ से आर्त्त-ध्वनि निकल आती थी और अभी एक सौ में कुल पन्द्रह चावुक पड़े थे।

रात के दस बज गये थे। चारों और सन्नाटा छाया था और उस नौरव अंधकार में मँगरू का करुण-विलाप किसी पक्षी की भांति आकाश में मंडला रहा था। वृक्षों के समूह भी हत्-बुद्धि-से खडे मौन रोदन की मूर्ति बने हुए थे। यह पाषाणहृदय,लम्पट विवेक-शून्य जमादार इस समय एक अपरिचित स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने के लिए अपने प्राण तक देने पर तैयार था, केवल इस नाते कि यह उसके पत्नी की सगिनी थी। वह समस्त संसार को नज़रों में गिरना गवारा कर सकता था, पर अपनी पत्नी की भक्ति पर अखण्ड राज्य करना चाहता था। इसमें अणुमात्र की कमी भी उसके लिए असह्य थी। उरा अलौकिक भक्ति के सामने उसके जीवन का क्या मूल्य था?

× × × ×

ब्राह्मणी तो ज़मीन पर ही सो गई थी, पर गौरा बैठो पति की बाट जोह रही थी। अभी तक वह उससे कोई बात न कह सकी थी। सात वर्षों की विपत्ति कथा कहने और सुनने के लिए बहुत समय की ज़रूरत थी, और रात के सिथा वह समय फिर कब मिल सकता था। उसे ब्राह्मणी पर कुछ क्रोध-सा आ रहा था कि यह क्यों मेरे गले का हार हुई। इसके कारण तो वह घर में नहीं आ रहे हैं।

यकायक वह किसीका रोना सुनकर चौंक पड़ी। भगवान् , इतनी रात गये कौन दुख का मारा रो रहा है। अवश्य कोई कहीं भर गया है। वह उठकर द्वार पर आई और यह अनुमान करके कि मॅगरू यहाँ बैठा हुआ है, बोली-~वह कौन रो रहा है । जरा देखो तो। लेकिन जब कोई जवाब न मिला तो वह स्वयं कान लगाकर सुनने लगी । सहसा उसका कलेजा धक्-से हो गया। यह तो उन्हीं की आवाज है। अब आवाज साफ