पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४१
वेश्या

'यह तो अब कहीं दो-तीन बजे चेतेंगे।'

'बुरा मानेंगे।'

'मैं अब इन बातों की परवाह नहीं करती। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि अगर मुझे कभी आँखें दिखाई, तो मैं भी इन्हें मज़ा चखा दूंगी। मेरे पिताजी फौज में सूबेदार मेजर हैं । मेरी देह में उनका रक्त है।

लीला की मुद्रा उत्तेजित हो गई। विद्रोह की वह आग, जो महीनों से पड़ी सुलग रही थी, प्रचण्ड हो उठी ।

उसने उसी लहजे में कहा-मेरी इस घर में इतनी साँसत हुई है, इतना अप- मान हुआ है और हो रहा है कि मैं उसका किसी तरह भी प्रतीकार करके आत्म- ग्लानि का अनुभव न करूंँगी। मैंने पापा से अपना हाल छिपा रखा है। आज लिख दूं, तो इनकी सारी मशीखत उतर जाय । नारी होने का दण्ड भोग रही हूँ ; लेकिन नारी के धैर्य की भी सीमा है।

दयाकृष्ण उस सुकुमारी का वह तमतमाया हुआ चेहरा, वह जलती हुई आँखें, वह कांपते हुए होंठ देखकर काँप उठा। उसकी दशा उस आदमी को-सी हो गई, जो किसी रोगी को दर्द से तड़पते देखकर वैद्य को बुलाने दौड़े। आर्द्र कण्ठ से बोला - इस समय मुझे क्षमा करो लीला ! फिर कभी तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार करूँगा। तुम्हें अपनी ओर से इतना ही विश्वास दिलाता हूँ कि मुझे अपना सेवक समझती रहना । मुझे न मालूम था कि तुम्हे इतना कष्ट है, नहीं शायद अब तक मैंने कुछ युक्ति सोची होती । मेरा यह शरीर तुम्हारे किसी काम आये, इससे बढकर सौभाग्य की बात मेरे लिए और क्या होगी ?

दयाकृष्ण यहाँ से चला, तो उसके मन मे इतना उल्लास भरा हुआ था, मानो विमान पर बैठा हुआ स्वर्ग की ओर जा रहा है । आज उसे जीवन में एक ऐसा लक्ष्य मिल गया था, जिसके लिए वह जी भी सकता है, मर भी सकता है। वह एक महिला का विश्वासपात्र हो गया था । इस रत्न को वह अपने हाथ से कभी न जाने देगा, चाहे उसकी जान ही क्यों न जाय ।

( ३ )

एक महीना गुजर गया। दयाकृष्ण सिगारसिंह के घर नहीं आया। न सिंगार- सिंह ने उसको परवाहं की। इस एक ही मुलाकात में उसने समझ लिया था कि दया‌