पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८
मानसरोवर

'क्या जितने आदमी बैंकों मे नौकर है, उनको नीयत बदलती रहती है ?" वह बोला।

चम्पा ने गला छुड़ाना चाहा--तुम जबान पकड़ते हो। ठाकुर साहब के यहां इस शादी मे हो तुम अपनी नीयत ठीक नहीं रख सके। सौ-दो-सौ रुपये की चीजें घर में रख हो लीं।

प्रकाश के दिल से बोझ उतर गया । मुसकिराकर बोला-अच्छा, तुम्हारा संकेत उस तरफ था, लेकिन मैंने कमीशन के सिवा उनकी एक पाई भी नहीं छुई। और कमीशन लेना तो कोई पाप नहीं। बड़े-बड़े हुक्काम खुलेखजाने कमीशन लिया करते हैं ।

चम्पा ने तिरस्कार के भाव से कहा--जो आदमी अपने ऊपर इतमा विश्वास रखे, उसकी आँख बचाकर एक पाई लेना भी मैं पाप समझती हूँ। तुम्हारी सज्जनता तो मैं जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते। इन छः महीनो मे उन्होने तुम्हारे साथ क्या-क्या सलूक किये, कुछ याद है ? मकान तुमने खुद छोड़ा, लेकिन वह २०) महीना देने जाते हैं। इलाके से कोई सौगात आतो, तुम्हारे यहाँ जरूर भेजते हैं। तुम्हारे पास घड़ी न थी, अपनी घड़ी तुम्हें दे दी। तुम्हारी महरी जब नागा करती है, खबर पाते ही अपना नौकर भेज देते हैं। , मेरी बीमारी ही में डाक्टर साहब की फीस उन्होने दी, और दिन में दो बार हाल-चाल पूछने आया करते थे। यह जमानत ही क्या छोटी बात है ? अपने सम्बन्धियो तक की जमानत तो जल्दी कोई करता ही नहीं। तुम्हारी जमानत के लिए दस हजार रुपये नकद निकालकर दे दिये। इसे तुम छोटो बात समझते हो ? आज तुमसे कोई भूल- चक हो जाय, तो उनके रुपये तो जब्त हो जायँगे। जो आदमी अपने ऊपर इतनी दया रखे, उसके लिए हमें भी प्राण देने को तैयार रहना चाहिए।

प्रकाश भोजन करके लेटा, तो उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी। दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा हुआ है, यह उस वक्त मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। मन का विकार उस वक्त मालूम होता है, जब कोई उसे हमारे सामने खोलकर रख देता है। किसी सामाजिक या राजनीतिक अन्याय का व्यंग्यचित्र देखकर क्यों हमारे मन को चोट लगती है , इसी लिए कि वह चित्र हमारी पशुता को खोल- कर हमारे सामने रख देता है। वह जो मन सागर में विखरा हुआ पड़ा था, जैसे‌