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चमत्कार

केंद्रीभूत तहोकर व्हदाकार हो जाता है । तब हमारे मुंह से निकल पड़ता है --उपफोह ! चम्पा के इन तिरस्कार-भरे शब्दों ने प्रकाश के मन मे ग्लानि उत्पन्न कर दी। वह सन्दुक कई-गुना भारी होकर शिला की भाँति उसे दबाने लगा। मन में फैला हुआ विकार एक बिंदु पर एकत्र होकर टीसने लगा।

( ७ )

कई दिन बीत गये । प्रकाश को बैंक मे जगह मिल गई । इसी उत्सव में उसके यहाँ मेहमानों की दावत है । ठाकुर साहब, उनकी स्त्री, बीरू और उसकी नवेली बहू, सभी आये हुए हैं। चम्पा सेवा-सत्कार में लगी हुई है। बाहर दो चार मित्र गा-बजा रहे है। भोजन करने के बाद ठाकुर साहब चलने को तैयार हुए।।

प्रकाश ने कहा-आज आपको यहीं रहना होगा दादा ! मैं इस वक्त न जाने दूंगा।

चम्पा को उसका यह आग्रह बुरा लगा। चारपाइयाँ नहीं हैं, बिछावन नहीं है और न काफी जगह ही है । रात-भर उन्हें तकलीफ देने और आप तकलीफ उठाने की कोई जरूरत उसकी समझ मे न आई , लेकिन प्रकाश आग्रह करता ही रहा, यहाँ तक कि ठाकुर साहब राजी हो गये।

बारह बज गये थे। ठाकुर साहब ऊपर सो रहे थे। बीरू और प्रकाश बाहर बरा- मदे में थे। तीनो स्त्रियाँ अन्दर कमरे मे थीं। प्रकाश जाग रहा था। वीरू के सिरहाने उसकी कुंजियों का गुच्छा पड़ा हुआ था। प्रकाश ने गुच्छा उठा लिया। फिर कमरा खोलकर उसमें से गहनों का सन्दूकचा निकाला और ठाकुर साहब के घर की तरफ चला । कई महीने पहले वह इसी भांति कपित हृदय के साथ ठाकुर साहब के घर में घुसा था । उसके पाँव तब भी इसी तरह थरथरा रहे थे, लेकिन तब काँटा चुभने की वेदना थी, आज काँटा निकलने की। तब ज्वर का चढाव था, उन्माद, ताप और विकलता से भरा हुआ। अव ज्वर का उतार था, शान्त और शीतल। तब कदम पीछे हटता था, आज आगे बढ़ रहा था।

ठाकुर साहब के घर पहुंचकर उसने धीरे से बीरू का कमरा खोला और अन्दर जाकर ठाकुर साहब की खाट के नीचे सन्दूकचा रख दिया। फिर तुरन्त बाहर आकर धीरे से द्वार वन्द किया और घर को लौट पड़ा। हनुमान संजीवनी बूटीवाला धवलागिर उठाये जिस गर्वीले आनन्द का अनुभव कर रहे थे, कुछ वैसा ही आनन्द प्रकाश को भी हो रहा था । गहनो को अपने घर ले जाते समय उसके प्राण सूखे हुए थे, मानो‌