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मानसरोवर


को अलंकृत करने के न-जाने किन-किन विधानों का प्रयोग कर रही थी , पर इसमें किसी योद्धा का उत्साह नहीं, कायर का कम्पन था ।

सहसा आइवन ने आँखों में आँसू भरकर कहा-तुम आज इतनी मायाविनी हो गई हो हेलेन, कि मुझे न जाने क्यों तुमसे भय हो रहा है।

हेलेन मुसकिराई। उस मुस्कान में करुणा भरी हुई थी--मनुष्य को कभी-कभी कितने ही अप्रिय कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है आइवन ! आज मैं सुधा से विष का काम लेने जा रही हूँ, अलंकार का ऐसा दुरुपयोग तुमने कहीं और देखा है ?

आइवन उड़े हुए मन से बोला-~-इसी को तो राष्ट्र जीवन कहते हैं ।

'यह राष्ट्र-जीवन नहीं है.---यह नरक है।'

'मगर संसार में अभी कुछ दिन और इसकी ज़रूरत रहेगी।' ।

'यह अवस्था जितनी जल्द बदल जाय, उतना ही अच्छा ।'

पाँसा पल्ट चुका था, आश्वन ने गर्म होकर कहा-'अत्याचारियों को संसार मे फलने-फूलने दिया जाय, जिसमें एक दिन इनके कांटों के मारे पृथ्वी पर कहीं पाँव रखने की जगह न रहे ?

हेलेन ने कोई जवाब न दिया , पर उसके मन में जो अवसाद उत्पन्न हो गया था, वह उसके सुख पर झलक रहा था । राष्ट्र उसकी दृष्टि मे सर्वोपरि था, उसके सामने व्यक्ति का कोई मूल्य न था । अगर इस समय उसका मन किसी कारण से दुर्बल भी हो रहा था, तो उसे खोल देने का उसमे साहस न था।

दोनों गले मिलकर बिदा हुए। कौन जाने यह अन्तिम दर्शन हो! दोनो के दिल भारी थे, और आँखें सजल।

आइवन ने उत्साह के साथ कहा-~मैं ठीक समय पर आ जाऊँगा।

हेलेन ने कोई जवाब न दिया।

आइवन ने फिर सानुरोध कहा-~-खुदा से मेरे लिए दुआ करना हेलेन !

हेलेन ने जैसे रोते हुए गले से कहा- मुझे खुदा पर भरोसा नहीं है।

'मुझे तो है।'

'कबसे?'

'जबसे मौत मेरी आँखों के सामने खड़ी हो गई।

वह वेग के साथ चला गया। सन्ध्या हो गई थी और दो घटे के बाद ही उस‌