बाधा न थी। इसे वह केवल देह को एक भूख समझती थी। इस भूख को
किसी साफ-सुथरी दुकान से भी शात किया जा सकता है। और पद्मा को साफ-
सुथरी दुकान की हमेशा तलाश रहती थी। ग्राहक दुकान में वही चीज़ लेता है,
जो उसे पसंद आती है । पद्मा भी वही चीज चाहती थी। यो उसके दर्जनों आशिक
थे, कई वकील, कई प्रोफेसर, कई डाक्टर, कई रईस , मगर ये सब-के-सब ऐयाश
थे, बेफिक्र, केवल भौंरे की तरह रस लेकर उड़ जानेवाले । ऐसा एक भी न था, जिस
पर वह विश्वास कर सकती। अब उसे मालम हुआ कि उसका मन केवल भोग नहीं
चाहता, कुछ और भी चाहता है । वह चीज़ क्या थी ? पूरा आत्म-समर्पण, और यह
उसे न मिलती थी।
उसके प्रेमियों मे एक मि० प्रसाद था, बड़ा ही रूपवान् और धुरन्धर विद्वान् । एक कालेज में प्रोफेसर था। वह भी मुक्त भोग के आदर्श का उपासक था और पद्मा उस पर फिदा थी। चाहती थी, उसे बाँधकर रखे, सम्पूर्णत अपना बना ले, लेकिन प्रसाद चगुल मे न आता था।
संध्या हो गई थी। पमा सैर करने जा रही थी कि प्रसाद आ गये। सैर करना मुल्तवी हो गया। यातचीत मे सैर से कहीं ज्यादा आनंद था और पद्मा आज प्रसाद से कुछ दिल की बात कहनेवाली थी। कई दिन के सोच-विचार के बाद आज उसने कह डालने ही का निश्चय किया था ।
उसने प्रसाद को नशीली आँखों मे आँखें मिलाकर कहा--तुम यहीं मेरे बंगले में आकर क्यो नहीं रहते।
प्रसाद ने कुटिल-विनोद के साथ कहा---- नतीजा यह होगा कि दो-चार महीने मे यह मुलाकात भी बन्द हो जायगी।
'मेरी समझ में नहीं आया, तुम्हारा क्या आशय है ?'
'आशय वही है, जो मैं कह रहा हूँ।'
'आखिर क्यो ?'
'मैं अपनी स्वतन्त्रता न खोना चाहूँगा, तुम अपनी स्वतत्रता न खोना चाहोगी।
तुम्हारे पास तुम्हारे आशिक आयेंगे, मुझे जलन होगी। मेरे पास मेरी प्रेमिकाएँ
आयेंगी, तुम्हे जलन होगी । मन-मुटाव होगा, फिर वैमनस्य होगा और तुम मुझे घर